बदलती हवाओं का स्पर्श पाकर कहीं विकराल ना हो जाए।
बदलती हवाओं का स्पर्श पाकर कहीं विकराल ना हो जाए।
कथित गुण ज्ञानियों के प्रलाप से उपजा,
खिसियायी ढी़ठ मुस्कानों से आबद्ध वैभव,
किसी खूनी क्रांति का सूत्रधार ना हो जाए।
परंपराओं की कुटिल सलाखों में सदियों से कैद मानवता,
बदलती हवाओं का स्पर्श पाकर कहीं विकराल ना हो जाए।
मैले हाथों से रचे शाहकार,
उजले हाथों के अनावरण से शर्मशार ना हो जाए।
निष्कपट मधु के प्याले कुटिल होठों से छूकर संगसार ना हो जाए।
श्रुतियों के विषाद की सीलन
उदित किरणो के तेज का मजाक उड़ाती है,
रीढ़हिनो के कह कहे
उनके ही जी का जंजाल ना हो जाए।
सूर बधिरों ने औषधीयो के बाजार सजा रखे हैं,
आर्तनाद से घायल कंठो से कोई शंखनाद ना हो जाए,
धोखे की बुनियाद पर भरोसे की संधिया करने वालों,
विधाता की पीठ पर रचित,
तुम्हारी स्मृतियों के आदर्शों पर
कहीं आक्रोश का प्रतिघात ना हो जाए।
: राकेश देवडे़ बिरसावादी