बदलती फ़िजा
बदल रही है फ़िजा,
आवो हवा शहर की,
अब है फ़िक्र किसे
अमृत वा ज़हर की|
लगा है ‘मयंक’
जिसे देखिए स्वारथ में,
कहाँ खबर है किसी को
सुनहरे प्रहर की|
बेवज़ह ही रिश्ते
बदनाम हो रहे हैं,
गलतफ़हमी में
चक्केजाम हो रहे हैं|
बुद्धिजीवी चंगुल में
हैं रिश्तों की डोरियाँ,
उनके हरेक काम
सरेआम हो रहे हैं|
✍ के.आर.परमाल ‘मयंक’