— बदनाम गलिआं —
एक वक्त था, कभी सुना भी था
लोग दर्दे दिल की दवा
हांसिल करने चल देते थे
उन बदनाम गलिओं में
भूल से जाते थे ,
कि
कदम किस तरफ बढ़ गए हैं,
ढोलक की ढम ढम
घुंघरुओं की रूनझुन
में खुद को डूबा लेते थे
शराब और शबाब का
मिलान होने को होता था
नृत्ये करती न जाने
किस घर की मजबूर सी बाला
उस दर्दे दिल की दवा बन जाती थी
खो सा जाता था इंसान
खुद को मानता था बहुत धनवान
अक्ल पर पत्थर डाल कर
कुछ हरकते भी करता था वो शैतान
भूल जाता था उस महफ़िल में
कि वो है इंसान या है शैतान
हाथ डालने को ललचाई आँखों से
बढ़ने लगा उठा कदम वो अनजान
सामने जब नजर से नजर
मिली तो हो गया , वो हैरान
आँखे नीचे चली गयी
मुख से बोल उस के थम गए
कदम वही पर रूक गए
हाथ से मदिरा दूर छिटक गयी
जब देखा चेहरा ,
अपनी बहन का
जैसे उस के निकलने को हुए बस प्राण
हाथ को मारता धरती पर
उठा खड़ा हुआ वो शैतान
लेने लगा उठे के पन्गा
सब के साथ बन बैठा बलवान
ले चला निकाल के अपनी बहना
को उस बंदनाम गलिओं से
और प्रण किया कभी न हो ऐसा अपराध
मैं भटक गया दर्द की दवा के लिए
अनजाने में न जाने क्या कर देता मैं बेईमान
अजीत कुमार तलवार
मेरठ