दिखता था
घाव गहरा था पर न दिखता था,
जख्म पुराना था पर न रिसता था।
सांसों में बेचैनी थी, नज़रों में बेताबी थी,
सीने पे कोई पत्थर था, जो न घिसता था।
दर्द मेरे पास था, दुनिया दाम लगाती थी,
शायद वो मेरा हिस्सा था इसीलिए न बिकता था।
बाद में सब कहते थे जो मुझसे कह सकते थे,
कितनी बार कहना चाहा पर कोई न समझता था।
दर्द के अंदर मरने से, चेहरा शून्य हो जाता है,
लोगों को हम पढ़ते थे पर ख़ुद में न कुछ दिखता था।
यदि मुझसे तुम पूछोगे, जीवन में क्या पाया है,
मैं खुद को आधा चांद कहूंगा, जो पहले पूरा दिखता था ।।
© अभिषेक पाण्डेय अभि