बड़े खुश हैं हम
बड़े खुश हैं हम
( जल दिवस पर एक कविता )
डॉ सुशील शर्मा
एक बादल
मेरे ऊपर से गुजर गया
लेकिन बरसा नहीं।
धरती झुलसती है
सूखती नदी
चीखती है
सियासत के रास्ते
नीलाम होती है
समय का बोझ ढोती
शहर की सिसकती नदी।
लेकिन बड़े खुश हैं हम।
न गोरैया न दादर
न तीतर बोलतें है अब।
हमने काट दिए हैं
परिंदों के पर
पेड़ों का दर्द हमने
सुनना नहीं सीखा।
पहले मेरे गाँव के पास ही
रहता था जंगल
खूब हँसता मुस्कुराता
फिर शहर ने विकास के नाम पर
कर दिया उसका कत्ल
उसके साथ ही विलुप्त हो गए
शेर चीतल हिरण भालू
सुंदर चिड़ियाँ
साथ ही मर गयीं
आदिवासी सभ्यताएँ
सूख गए
पानी के अनगिन स्त्रोत
आज खड़ा है एक विशालकाय
बिजली संयंत्र
जिसकी चिमनियां उगलती हैं
सैंकड़ों टन धुआँ और राख।
लेकिन बड़े खुश हैं हम।
सुना है कल रात
पास की नदी भी नीलम हो गयी
सुबह से ही धँसीं हैं
किसी गोंच की तरह
कई जे सी बी
नोच रहीं है
उसके शरीर से
एक एक कण रक्त
उस सिसकती मरती
नदीं की मौत पर
लेकिन बड़े खुश हैं हम।
गाँव गली सुनसान है
पनघट भी वीरान
टूटी पड़ी है नाव
दूर तक सूखे पड़े हैं खेत
गड्ढे में तब्दील कुएँ
रेत उगलते पम्प
भूखी प्यासी गायें
लेकिन हम बहुत खुश हैं।
जल ही जीवन है
जल सा सूखता जीवन है
जल की बूँदें गर नहीं बचीं
तो हमें धिक्कारेंगी
आने वाली पीढ़ियाँ
पानी की लम्बी कतारों में
खड़े रहेंगे हमारे नाती पोते
पानी पर से बिछी रहेंगी
हज़ारों लाशें रोज
हनन करेंगे शक्तिशाली
नदियों के अधिकारों को ।
सारे जल पर कब्ज़ा होगा
बाहुबली मक्कारों का।
लेकिन हम बहुत खुश हैं।