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27 Jun 2023 · 32 min read

’बज्जिका’ लोकभाषा पर एक परिचयात्मक आलेख / DR. MUSAFIR BAITHA

’बज्जिका’ लोकभाषा पर एक परिचयात्मक आलेख

1.बज्जिका उपभाषा/बोली & भौगोलिक क्षेत्र :
बज्जिका उत्तर बिहार क्षेत्र के बड़े भूभाग तथा उससे सटे नेपाल देश के सीमावर्ती क्षेत्रों में लगभग दो करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा है. उत्तर बिहार के कई जिलों एवम इस इलाके से सटे नेपाल के तराई क्षेत्र में बज्जिका बोली जाती है.
बिहार के मुजफ्फरपुर क्षेत्र को बज्जिका भाषा का हृदय-प्रदेश कहा जा सकता है. इसके अलावा सीतामढ़ी, शिवहर, समस्तीपुर, वैशाली जिलों में बज्जिका व्यापकता से बोली जाती है जबकि पूर्वी चंपारण, दरभंगा, मधुबनी जिलों में भी बज्जिका का अच्छा-खासा प्रभाव है.
तिरहुत क्षेत्र के वैसे लोग जो अपनी नौकरी के चलते महानगरों में प्रवास करते हैं, उनकी घरेलू भाषा भी बज्जिका है.

2.बज्जिका भाषा का संक्षिप्त इतिहास : बज्जिका हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार के अन्दर आती है. ये हिन्द ईरानी शाखा की हिन्द आर्य उपशाखा के बिहारी भाषा समूह के अन्तर्गत वर्गीकृत है. बज्जिका हिंदी की उपभाषा है जिसे हम मैथिली भाषा की जननी कह सकते हैं. या यों कहें, बज्जिका वास्तव में मैथिली का प्राचीन स्वरूप है, जिसकी नींव पर मध्यकाल के राज्याश्रयी विद्वान कवियों ने आधुनिक मानक मैथिली का निर्माण किया.
यह रोचक तथ्य है कि बज्जिका भाषा के स्वतंत्र अस्तित्व की ओर संकेत करनेवाले ‘घुम्मकड़ स्वामी’ राहुल सांकृत्यायन थे, जिन्होंने अपने लेख “मातृभाषाओं की समस्या” में भोजपुरी, मैथिली, मगही और अंगिका के साथ-साथ बज्जिका को हिंदी के अंतर्गत जनपदीय भाषा के रूप में स्वीकृत किया (पुरातत्व निबंधावली, पृ. 12, 241). बिहार का यह क्षेत्र सांकृत्यायन की कर्मस्थली का हिस्सा भी रहा है.

बज्जिका की प्राचीनता एवं गरिमा वैशाली गणतंत्र के साथ जुड़ी हुई है. लगभग ५००ई.पू. भारत में स्थापित वैशाली गणराज्य (महाजनपद) का राज्य-संचालन करने वाले अष्टकुलों- लिच्छवी, वृज्जी (वज्जि), ज्ञात्रिक, विदेह, उगरा, भोग, इक्ष्वाकु और कौरव- में सबसे प्रधान कुलों बज्जिकुल एवं लिच्छवियों के काल में सामान्य लोगों द्वारा प्रयोग की जाने वाली बोली बज्जिका कहलाने लगी.
राजकाज के लिए उस समय संभवतः प्राकृत का इस्तेमाल होता था जबकि धार्मिक कृत्य संस्कृत में होते थे. अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ की तरह, बज्जिका भी राजाओं, सामंतों, दरबारों, धार्मिक रीति-रिवाजों एवं वर्गगत निहित स्वार्थों की अभिव्यक्ति माध्यम रही संस्कृत से अलग थी. अभिजात स्वरूप नहीं रखने के कारण इसमें सामान्य दैनिक छोटी-बड़ी चीजों को भी बताने वाले शब्दों का प्राचुर्य है.
बज्जिका का प्राचीन इतिहास गयाधर (रचनाकाल 1045 ई.), हलदर दास (रचनाकाल 1565 ई.), मँगनीराम (1815 ई. के आसपास) की रचनाओं से आरंभ होता है. गयाधर वैशाली के रहनेवाले थे और बौद्ध-धर्म के प्रचारार्थ तिब्बत गए थे. हलदर दास का लिखा हुआ एक खंडकाव्य सुदामाचरित्र प्राप्त है, जो संपूर्ण बज्जिका में लिखा गया है. कहा जाता है इन्होंने बहुत सी रचनाएँ बज्जिका में की थीं. मँगनीराम की तीन पुस्तकें – मँगनीराम की साखी, रामसागर पोथी और अनमोल रतन – मिली हैं.

बज्जिका भाषा के साहित्य का दूसरा अध्याय 20वीं शताब्दी से शुरु होता है. लेखक एवं भाषाविज्ञानी डा. योगेन्द्र प्रसाद सिंह (जन्म १६ अप्रैल, १९१४ , मोरसंड, सीतामढ़ी, बिहार) का बज्जिका भाषा और साहित्य के निर्माण में विशिष्ट योगदान है.
‘बज्जिका का प्रथम व्याकरण’ (प्रथम संस्करण, १९९९, डा. योगेन्द्र प्रसाद सिंह बज्जिका संस्थान, मुजफ्फरपुर, बिहार द्वारा प्रकाशित) के अलावा उन्होंने ‘बज्जिका भाषा के कतिपय शब्दों का आलोचनात्मक अनुशीलन’, ‘बज्जिका का स्वरूप’, ‘बज्जिका और देशी शब्द’, जैसी हिंदी पुस्तकें लिखी हैं जिनके चलते बज्जिका भाषा के स्वरूप निर्माण में बड़ी सहायता मिली है. कह सकते हैं, कि बज्जिका भाषा के मानक रूप के स्थिरीकरण एवं बज्जिका-क्षेत्र के सीमांकन के लिए भाषा सर्वेक्षण आदि प्राथमिक कार्यों को संपन्न करने में डा. योगेन्द्र का शीर्ष व उल्लेखनीय योगदान है.
डा. योगेन्द्र के बज्जिका में तीन काव्य संग्रह हैं – ‘लोढ़ल फूल चङेरी में’, ‘असफल आदर्श’ एवं ‘सन्दर्भ सप्तक’.
बज्जिका-हिंदी शब्दकोष का निर्माण सुरेन्द्र मोहन प्रसाद के संपादन में किया गया है. विश्व भारती (शांति निकेतन) में हिंदी विभागाध्यक्ष डा सियाराम तिवारी द्वारा लिखित बज्जिका भाषा और साहित्य का प्रकाशन बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से वर्ष 1964 में हुआ था. भारत एवं विदेश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में कई भाषाविद और विद्वान तथा पत्रकार बज्जिका में साहित्य रचना एवं शोध कर रहे है. क्षेत्रीय भाषाओं को महत्व देते हुए प्रकाशन विभाग ने बज्जिका की लोक कथाएँ (लेखक- राजमणि राय ‘मणि’) हिंदी में प्रकाशित की है.
वर्तमान में बज्जिका का दर्जा हिंदी की लोकभाषा के रूप में है. राज्याश्रय का अभाव, विद्वानों के असहयोग एवं पर्याप्त साहित्य-भंडार के अभाव में बज्जिका की पहचान भाषा के रूप में नही बन सकी है और, बज्जिकासेवियों का प्रयास भी व्यक्तिगत अधिक संगठित रूप में नहीं के बराबर है.
बज्जिका के समान ही बोली जानेवाली मैथिली को इस क्षेत्र के नेताओं, साहित्यकारों एवं संस्कृतिकर्मियों के द्वारा किए गए प्रयासों के चलते अब भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर आधिकारिक मान्यता दे दी गई है. किंतु मैथिली भाषी के विपरीत बज्जिकाभाषी समाज के संपन्न तबकों में बज्जिका को लेकर गौरव का अभाव है. स्थिति ऐसी है कि अगर कोई अन्य बिहारी भाषा बोलने वाला सामने मौजूद हो तो दो बज्जिका भाषी आपस में बज्जिका में बात करने से हिचकते हैं, हिंदी में ही बात करते हैं.

भाषा विज्ञान को लेकर शोध करने वाली कई संस्थाएँ तथा बेवसाईट ने इसे विलुप्तप्राय भाषा की श्रेणी में रखा गया है. सबसे अफसोसनाक यह है कि भारत की भाषायी जनगणना 2001 में बज्जिका, अंगिका, कवारसी, दक्खिनी, कन्नौजी आदि बहुसंख्य बोलियों को हिंदी की श्रेणी से गायब कर दिया गया है जबकि सूचिबद्ध कई बोलियाँ ऐसी है जिनकी संख्या बहुत कम और अनजान है.

वैसे, बज्जिका के हक़ में कुछ न कुछ हो रहा है. समाज में बेहद जीवंत यह भाषा लिखंत में अपेक्षाकृत काफी पिछड़ी हुई है, बावजूद एकदम से ठहरी हुई नहीं है. बज्जिकांचल विकास पार्टी, स्वयंसेवी संस्थाएँ तथा इस क्षेत्र के कई भाषाविद बज्जिका के विकास के प्रति समर्पित हैं.
नेपाल में त्रिभुवन विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो योगेन्द्र प्रसाद यादव जैसे लेखक बज्जिका को उसका महत्व दिलाने हेतु प्रयासरत हैं. नेपाल के बज्जिका भाषी क्षेत्र में कविता पाठ एवं लेख प्रतियोगिता का आयोजन होता रहता है.

बज्जिका भाषा के ऊपर भारत या विदेश के विश्वविद्यालयों में शोध-पत्र भी प्रकाशित हुए हैं.

आकाशवाणी पटना से बज्जिका में चौपाल एवं गीत कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं लेकिन टेलिविजन पर बज्जिका में कार्यक्रम प्रसारित करने वाले चैनल का अभाव था. हाल में पॉजिटिव मीडिया ग्रुप द्वारा हमार टीवी नाम से एक पुरबिया न्यूज चैनल लंच किया गया है जो बज्जिका सहित भोजपुरी, अंगिका, मगही, मैथिली, नगपुरिया सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं झारखंड के स्थानीय भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित कर रहा है. मुजफ्फरपुर के एक गाँव से संचालित ‘अप्पन समाचार’ समाचार चैनल जिले में होनेवाली हलचल एवं गतिविधियों का बज्जिका में प्रसारण करती है. खास बात यह है कि कुछ पुरुषों का परोक्ष रुप से समर्थन एवं सहयोग से यह बहुचर्चित चैनल केवल महिलाओं द्वारा संचालित है.
उत्तर बिहार के महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र एवं बज्जिका क्षेत्र की हृदयस्थली मुजफ्फरपुर से कुछ बज्जिका पत्रिकाएँ निकलती हैं. उड़ीसा में बिजॉय कुमार महोपात्रा द्वारा निजी स्तर पर ६० भाषाओं में प्रकाशित पत्रिका ‘दुलारी बहन’ बज्जिका में भी निकलती है.
भोजपुरी फिल्म उद्योग के प्रसिद्ध अभिनेता विजय खरे ने हाल में ‘लछमी अलथिन हम्मर अंगना’ नाम से पहली बज्जिका फिल्म बनाने का प्रयास किया था.
*इतिहास लेखन में सहायक ग्रन्थ/सामग्री :1.बज्जिका का प्रथम व्याकरण, 2. बज्जिका भाषा के कतिपय शब्दों का आलोचनात्मक अनुशीलन, 3.बज्जिका का स्वरूप, 4.बज्जिका और देशी शब्द, (चारों डा. योगेन्द्र प्रसाद सिंह कृत/सम्पादित), 5.हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग (नामवर सिंह), 6.जनपदीय भाषाओँ का साहित्य (रमण शांडिल्य), 7.हिंदी भाषा का इतिहास (धीरेन्द्र वर्मा), 8.हिंदी साहित्य का आदिकाल (हजारी प्रसाद द्विवेदी), 9.मैथिली भाषा का विकास (गोविन्द झा, प्रकाशन-बिहार ग्रन्थ अकादमी, पटना), 10. बज्जिका साहित्य का इतिहास (प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मणि’, हंसराज प्रकाशन, मुजफ्फरपुर (बिहार), 11. बज्जिका व्याकरण (योगेन्द्र राय), 12. A systemic functional description of the grammar of Bajjika,
मैकेरे विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया में बज्जिका भाषा पर पीएचडी शोधपत्र (अभिषेक कुमार) आदि.

3.बज्जिका की सामान्य व्याकरणिक एवं भाषिक विशेषताएं : अर्थ की दृष्टि से किसी भाषा के सब शब्दों के एकत्र स्थिति को शब्द-समूह कहते हैं. हिंदी संघ की भाषा के के शब्द समूह का अध्ययन करने से पता चलता है कि उस भाषा में उसकी निजी कमाई की शब्द-संपदा कितनी है और खानदानी पूंजी कितनी है? साथ ही, अन्य भाषाओँ-बोलियों से लिए गये उधार के शब्द-आगर का भी पता लगता है. हिंदी संघ की एक सदस्या होने के कारण बज्जिका की जो प्रवृत्ति और विशेषताएं सामान्य हैं, वे हिंदी जैसी ही हैं, इसके अतिरिक्त बज्जिका की कतिपय विशेषताएं निजी हैं, जो इसके व्यक्तित्व को विशेष महत्त्व प्रदान करती हैं.

बज्जिका की शब्दावली को मुख्यतः चार वर्गों में रखा जा सकता है-तत्सम, तद्भव, देसज एवं विदेसज.
तत्सम शब्द: तत्सम यानी जो तत् (संस्कृत) के समान हो. मतलब कि संस्कृत के जो शब्द हिंदी अथवा बज्जिका में ह-ब-हू प्रयोग में आ गये हैं वे तत्सम कहलाये. प्राचीन साहित्य से अबतक अपने उसी रूप में प्राप्त शब्द भी तत्सम हैं.
बज्जिका के लोक व्यवहार वाले रूप में तत्सम शब्दों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है. गाँव के लोगों की सामान्य बातचीत में तत्सम शब्द प्रायः नहीं के बराबर प्रयुक्त होते हैं. शिक्षित लोगों की बोली में जरूर तत्सम शब्द अधिक व्यवहृत होते हैं.
बज्जिका में निम्नलिखित स्रोतों से ऐसे शब्द प्राप्त होते हैं-
अपने तत्सम रूप में ही प्राकृतों (पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि) से होते हुए बज्जिका में आये शब्द, जैसे-कंठ, खंड, गंध, तरंग, दंड, परिवार, बंध, भू, रवि आदि.
संस्कृत से भक्ति साहित्य तथा आधुनिक काल में प्राप्त तथा राजनीतिक कारणों से लिए गये शब्द, जैसे-कर्म, क्रिया, ज्ञान, क्षेत्र, मधुर, कुशल आदि.
संस्कृत के व्याकरणिक नियमों के आधार पर आधुनिक हिंदी काल में निर्मित संस्कृत शब्द जैसे, निदेशक (डायरेक्टर), नगरपालिका (म्युनिसिपैलिटी), पत्राचार (कौरेस्पौन्डेन्स), प्रभारी (इंचार्ज) आदि जो हिंदी में आ गये हैं, उन्हें भी बज्जिका में स्थान मिला है.
अन्य भारतीय भाषाओँ, बंगला, मराठी से स्वतंत्र रूप से अथवा हिंदी के माध्यम से बज्जिका में आये तत्सम शब्द. जैसे, बंगला से आगत उपन्यास, अभिभावक, गल्प, सन्देश तथा मराठी से आये प्रवृत्ति, वाङ्मय जैसे शब्द.

तद्भव/स्थानीय शब्द: ये वैसे शब्द हैं जिनका उद्भव संस्कृत या प्राकृत से हुआ था, लेकिन उनमें काफ़ी बदलाव आया है.
बज्जिका में सबसे बड़ा भाग तद्भव शब्दों का ही है. सम्पूर्ण प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य तो तद्भव ही है. विदेशी शब्द भी काफी संख्या में अब बज्जिका में आ गये हैं. उर्दू-अरबी-फारसी शब्द भी बज्जिका में काफी संख्या में उपलब्ध हैं.
बज्जिका में स्थानीय शब्दों की संख्या भी कम नहीं है. स्थानीय शब्दावली के कारण बज्जिका का शब्द-समूह अत्यंत समृद्ध है.
कुछ स्थानीय बज्जिका शब्द ऐसे हैं जो पूर्वी हिंदी एवं अन्य बोलियों से प्राप्त हैं. कुछ बज्जिका के शब्द मैथिली के साथ उभयनिष्ठ हैं, तथा कुछ मगही, भोजपुरी के साथ.
तद्भव/स्थानीय शब्दों के उदहारण – माई (माता), भाई (भ्राता), भतार (भर्तार से), चिक्कन (चिक्कण से), आग (अग्नि से), दूध (दुग्ध से), दाँत (दंत से), मुँह (मुखम से). तत्सम शब्द (संस्कृत से बिना कोई रूप बदले आनेवाले शब्द) का बज्जिका में प्रायः अभाव है. बज्जिका चूँकि मूलतः हिंदी की ही एक बोली है अतः हिंदी में प्रयुक्त होनेवाले तत्सम शब्दों की व्याप्ति बज्जिका में भी है.
देशज शब्द : बज्जिका में प्रयुक्त होने वाले देशज शब्द लुप्तप्राय हैं. इसके सबसे अधिक उपयोगकर्ता गाँव में रहने वाले लोग हैं. देशज का अर्थ है – जो देश में ही जन्मा हो. जो न तो विदेशी है और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो. ऐसा शब्द जो स्थानीय लोगों ने बोल-चाल में यों ही बना लिया गया हो. जैसे- हिसका (हिर्सा-हिर्सी), रेचकी (खुदरा/खुल्ला पैसे), पन्नी (पॉलिथीन), फटफटिया (मोटर साइकिल), घुच्ची (छेद), रांड़ी (रांड स्त्री के लिए गाली), भतरखउकी (पति को खा जाने वाली स्त्री, यानी डायन की तोहमत के साथ गाली), निपुत्तर (पुत्रविहीन) आदि.
विदेशज शब्द : हिन्दी के समान बज्जिका में भी कई शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि भाषा से भी आये हैं, इन्हें विदेशज शब्द कह सकते हैं. वास्तव में बज्जिका में प्रयोग होने वाले विदेशज शब्द का तद्भव/तिर्यक रूप ही प्रचलित है, जैसे-कौलेज, कौलेजिया, टीशन (स्टेशन), गुलकोंच(ग्लूकोज़), सिंगल (सिगनल), पैना (डंडा), ढेकुआ (धोती का ढेका), भुतलायल (भूला हुआ), लमटेल (लालटेन), नाव (नाम) आदि.

बज्जिका की लिपि : हिन्दी के समान बज्जिका भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है. पहले इसे ‘कैथी’ लिपि में भी लिखा जाता था. शब्दावली के स्तर पर अधिकांशत: हिंदी तथा उर्दू के शब्दों का प्रयोग होता है. फिर भी इसमें ऐसे शब्दों का इस्तेमाल प्रचलित है जिसका हिंदी में सामान्य प्रयोग नहीं होता.

वाक्य-विन्यास : वाक्यों की संरचना हिंदी के समान ही है लेकिन ‘है’ की जगह ‘ह’ या ‘हई’ लगता है। उदाहरण- सोंटा भुतला गेलई ह् (डंडा खो गया है). अबइले (आ रहा हूँ). चल गेलई (चला गया).

संज्ञाएँ : जैसे- सोंटा/सटका/पैना (डंडा/लाठी), छेंहुकी (पतली छड़ी), चट्टी (चप्पल), कचकारा (प्लास्टिक), चिमचिमी/चिमकी/पन्नी (पोलिथिन बैग), खटिया, ढिबरी (तेल वाली बत्ती), लमटेल (लालटेन), चुनौटी (तम्बाकूदान), बेंग (मेंढक), गमछा (तौलिया), इनार/इंडा (कुँआ), अमधूर (अमरूद), सिंघारा (समोसा), चमेटा (थप्पड़), कपाड़/माथा (सिर/मस्तिष्क), नरेट्टी (गरदन), ठोड़ (होंठ), गाछी (पेड़), डाढ़ (डाल या तना), सोंड़ (मूल जड़), भन्साघर (रसोई घर), डांढ़ (कमर), डगरा (गोलाकार सूप) आदि.

विशेषण : जैसे- लिच्चर (कंजूस एवं कपटी स्वभाव वाला), ख़चड़ा या खच्चड़ (बदमाश), ढहलेल (बेवकूफ), लतखोर (बार-बार गलती करने वाला), बकलेल(बेवकूफ), बुड़बक(निरा बेवकूफ), भितरघुन्ना (कम बोलने और ज्यादा सोचने वाला), साँवर (साँवला), गोर (गौरवर्ण), पतरसुक्खा/पतरसुईठा (दुबला-पतला आदमी), चमड़चिट्ट (पीछा न छोडनेवाला), थेथर (बार-बार गलती करने वाला), गोरकी (गोरी लड़की), पतरकी (दुबली लड़की) आदि.

क्रियाएँ : जैसे- अकबकाना (चौंकना), टरकाना (टालमटोल), कीनना (ख़रीदना), खिसियाना (गुस्सा करना), हँसोथना (जल्दी समेटना), भमोर लेना (मुँह से काट लेना), बकोटना (नाखून से नोंचना), लबड़-लबड़ (जल्दी जल्दी बात बनाना),गम्मे-गम्मे (धीरे धीरे), ढ़ूंकना (प्रवेश करना), खिसियाना (गुस्सा करना), भुतलाना (खो जाना), बीगना (फेंकना), गोंतना (पानी में डुबाना), धड़फड़ाना (जल्दी के चक्कर में गिर जाना), मेहराना (नम होना), सरियाना (सँवारना), चपोड़ना (रोटी में घी उड़ेलना), सुतल (सोया हुआ), देखलिअई (देखा), बजाड़ना (पटकना), टटाना (दर्द करना), तीतना (भींग जाना), बियाना (पैदा होना), पोसना (लालन-पालन करना), फोंफ काटना (खर्राटा भरना), आदि.

खान-पान संबंधी शब्द: मिरचाई (मिर्च), मिट्ठा (गुड़), नून/नोन (नमक), बूँट (चना), भात (चावल), सतुआ, मुड़ई (मूली), अलुआ (एक प्रकार का कंद), ऊंख (ईख), रमतोरई (भिंडी), कोम्हरा (कोंहरा), झिमनी (झिंगुनी), घिउरा (नेनुआ), कचड़ी (एक नमकीन, पकौड़ी का एक प्रकार), तरुआ पकौड़ी का एक प्रकार),(ठेकुआ (एक प्रकार का मीठा पकवान), पुरुकिया (गुझिया), कसार (चावल एवं चीनी से बना गोलाकार मिष्टान्न), गरी (नारियल का कोपरा), तरकारी (सब्जी), छुच्छा (बिना सब्जी के), जूठ (जूठा), निरैठ (जो खाया नहीं गया हो), अज्जू/कांच (कच्चा फल), जुआएल/पाकल (पका फल), चोखा (आग में पकाकर बनाई गई सब्जी), भरता (भुर्ता) आदि.

कृषि-कार्य संबंधी शब्द: धूर, लग्गी, कट्ठा, बीघा/बिग्घा (जमीन की पैमाईश के लिए बनी इकाई), सिराउर (हल जोतने के समय बनने वाली धारियाँ, सीता), क्यारी (जमीन का छोटा छोटा कामचलाऊ मेडबंद टुकड़ा), कदवा (धान के लिए खेत की पानी पटाकर की गयी तैयारी), बिच्चा/ (बिचड़ा), बिया (बीज), बाव (हल की सहायता से अनाज बोना), छिट्टा (छीटकर अनाज बोना), पटवन (सिंचाई), कोरौनी (फसल से घास आदि निकालना,निकौनी), कटनी (फसल की कटाई), दौनी (तैयार फसल से अन्न निकालना), हर (हल), फार (फाल), पालो, (जुआ), हेंगा (जमीन समतल करने के लिए प्रयुक्त मोटी-लम्बी आयताकार लकड़ी, पैना (पतला डंडा), जाबी (जानवरों के मुँह बाँधने हेतु बनायी गयी जाली), जोर (जानवरों को बाँधने हेतु प्रयुक्त रस्सी), खुट्टा (खूँटा), कुट्टी (महीन चारा), दर्रा या धोईन (जानवरों को दिया जाने वाला अन्नयुक्त पतला आहार), खरी (खल्ली), चुन्नी (अनाज का छिलका, भूसा), गाछ या गाछी (पेड़), सोंड़ (मूल जड़), डांढ़ (तना), बीया (बीज), चाऊर (चावल), खुद्दी (टूटा चावल) आदि.

गिनती/ संख्यावाचक/ मात्रात्मक शब्द : गिनती के कुछ शब्द हिंदी से विरूपित फॉर्म के होते हैं जैसे, दू, (दो), छौ(छः/छह), एगारह (ग्यारह), चउदह), पंडऽ (पन्द्रह), सोलऽ (सोलह), सतरऽ (सत्रह), अठारऽ (अठारह), उनइस (उन्नीस), एकइस (इक्कीस), एकाओन (इक्यावन), अनठाओन (अट्ठावन) आदि। अंजुरी (दोनों हाथ की दोने में समाने लायक जुडी स्थिति), सेर (लगभग ९०० ग्राम), पसेरी (५ सेर), मन (४० सेर), कट्ठा (लगभग २५ सेर), बित्ता (अंगूठे से कनिष्ठा के छोर तक की लम्बाई), डेंग (पग भर), कोस (लगभग डेढ किलोमीटर की दूरी), गंडा (चार की इकट्ठी स्थिति का द्योतक), गाही (पांच की इकट्ठी स्थिति का द्योतक), तनका (थोडा), बेसी (अधिक/ज्यादा), सउंसा (पूरा) आदि.

कुछ अन्य बज्जिका शब्द : जैसे- करेजा (कलेजा), भसन्नर(गन्दा रहने वाला व्यक्ति), पहर (प्रहर), भिन्सारा (सुबह), बिहान (सुबह, कल), अन्हार (अंधेरा), इंजोर (प्रकाश), भोगजियार (स्पष्ट), ओसारा (बरामदा), अनठेकानी (बिना अनुमान के), तनी/तनीयक (थोड़ा), निम्मन (अच्छा/स्वादिष्ट), अउँघी (नींद), बहिर (बधिर), अखनिए (अभी), तखनिए(तभी), माथा (दिमाग), फैट (मुक्का), लूड़़ (कला), गोईठा, डेकची, फटफटिया (मोटरसायकिल), नूआ (साड़ी), भुईयां (जमीन), गोर (पैर), खिस्सा (किस्सा), लरम (नर्म) आदि.

मुहावरे/लोकोक्तियाँ :
हिंदी की कहावतों एवं मुहावरों का प्रयोग बज्जिका में भी होता है लेकिन अशिक्षित या अल्प-शिक्षित लोग स्थानीय कहावतें एवं मुहावरे ही ज्यादा व्यवहार में लाते हैं. गौरतलब है कि ज्यादातर मुहावरे लक्षणा और व्यंजना के रूप में होते हैं.
बज्जिका में आम प्रयोग होने वाले कुछ मुहावरों/ लोकोक्तियों (कहावतों) की बानगी:
*मंगनी के पाई त नौ मन तौलाई (मुफ्त मिलने पर जरूरत से अधिक पाने की प्रवृत्ति)
*ढींड़ फूलना- गर्भवती होना।
*निमला/कमजोर के मौगी/बौह सबके भौजाई (गरीब की इज्जत सबके मजाक का साधन/महत्वहीन),
*सूप दूसलक चलनी के जेकरा में अपने बहत्तर गो छेद/ चलनी दूसलक बढ़नी के जेकरा में अपने बहत्तर गो छेद (दोषयुक्त व्यक्ति द्वारा दूसरों में दोष निकलना),
*हंसुआ के बियाह में खुरपी के गीत (अवसर के अनुपयुक्त काम करना),
*अनका धन ला चोरवा कानल (दूसरों का धन न चुरा पाने पर चोर द्वारा पछतावा किया जाना)
*अपना मन के मउजी बौह के कहे भउजी (किसी का कहा न मानना, मनमौजीपन)
*बाबाजी के बेल हाथे हाथे गेल (कम चीजों का बाँटने में न अटना)
*आगू पर के बाबाजी पानी के कहे जल/ आगू पर भेली माईराम तऽ पानी के कहली जल (किसी नये काम या विचार में जरूरत से ज्यादा रमने की कोशिश)
*गोआर के लाठी बिच्चे कपार (बिन सोचे-समझे लड़ने-झगड़ने को सीधे तैयार)
*गांड में आदी न चर चर पादी/गांड में दम न बजार में धक्का (शक्ति न होने पर भी उसका खोखला प्रदर्शन)
*पइसा न कउरी उतान हो गे छउरी (धन न होने पर भी खरीदारी को उद्धत होना)
*बाभन ताभन तांत के तीनों जनेउआ झांट के, चन्दन करे रोरी के कंठ चिबाबे घोड़ी के (ब्राह्मणों द्वारा तीन तागे वाले पवित्र जनेऊ का धारण करने के बावज़ूद अपवित्र/गलत कार्यों में संलग्न रहने को लेकर दुत्कारपरक लोकोक्ति)

4.बज्जिका गीत/कविताएँ (हिंदी अनुवाद सहित) :

डा. भावना रचित यानी बज्जिका के प्रथम स्त्री काव्य संकलन ‘हम्मर लहू तोहर देह’ से उद्धृत है ‘जितिया’ नामक बज्जिका कविता और एक गीत, मेरे द्वारा किये गये हिंदी अनुवाद के साथ (यह संकलन, प्रथम संस्करण, जनवरी २०१२ में आद्या प्रकाशन, बलुआ निवास, आवास नगर, गाली न.-२, न्यू पुलिस लाइन, बैरिया, मुजफ्फरपुर, बिहार से प्रकशित है. इसमें गीत, ग़ज़ल सहित कुल ६४ कविताएँ समाहित हैं.)-

१.जितिया (बज्जिका कविता)

जितिया पबनी कएले
केदरबा के ईआ
पिआस से बेआकुल होके
कराहइअ जोर जोर से
लेकिन न पिअइअ पानी
एको घूंट
जितिया पबनी हए
बेटा के अउरदा बढ़े ला
त केना ऊ
पी लेत एको घूंट पानी
इहे बेटा से त
हए ओकर दुनिया संसार
एकरे से मिलत
ओकरा आग
एकरे से मिलत ओकरा मुक्ति
से ला
एतना कठ काट के
कएले हए पबनी
लेकिन ओक्कर बेटी
चिथड़ा के भिजा भिजा के
पोछइअ ओकर मुंह
आ सोचइअ –
कहेला भईया ला
माई भूखे-पियासे
गट गट सहइअ
आ हमरा ला
एक्को गो पबनी न करइअ ?
ओकर सवाल
आई तक सवाल हए
तब !
जब इहो बन गेल हए
एगो माई
आउर सहइअ जितिया
अप्पन बेटा ला
त ओकरो बेटी के मन में
इहे सवाल घुमरइअ
बार बार
हजार बार !
————————-

जितिया (हिंदी अनुवाद)

जितिया व्रत किया है
केदारवा की माँ ने
प्यास से व्याकुल होकर
कराह रही है जोर जोर से
लेकिन पी नहीं रही पानी
एक भी घूंट
जितिया व्रत रखा है
बेटे की उम्र बढ़ाने की खातिर
तो कैसे वह
एक घूंट भी पानी पी ले
इसी बेटे से तो
उसका दुनिया-संसार बना है
इसी से मिलेगी
उसे आग
इसी से मिलेगी उसे मुक्ति
इसीलिए तो
इतना कष्ट उठाकर भी
उसने कर रखा है व्रत यह
उसकी बेटी
कपड़े के टुकड़े को भींगा भींगा कर
पोंछ रही है माँ का मुंह
और सोच रही है-
क्यों भैया के लिए
माँ भूखे-प्यासे रहकर
सहज ही इतना सह लेती है
और मेरे खातिर
एक भी व्रत नहीं करती?

उसका यह सवाल
आज तक सवाल ही बना हुआ है
तब
जबकि वह खुद भी
एक माँ बन चुकी है
और सह रही है जितिया
अपने बेटे के लिए
और उसकी बेटी के मन में भी
यही सवाल घुमड़ रहा है बार बार
हजार बार.

२.गीत (बज्जिका में)

कएला छोड़ के जाइत हतअ
हमरा बनमा घोर में
पइसा के होड़ में न…..

मुखरा देखेला हम तरसब
बात तोहरा सुनेला तड़पब
हम्मर इ आँख त हरदम
भीजल रहत लोर में

कएला छोड़ के जाइत…..

ननदी हमरा ताना मारत
आ सासू बढ़नी से मारत
गोतनी चढ़ा-उतरी करत
अधरतिया भोर में

कएला छोड़ के जाइत….

तू अब नोकरी-चाकरी छोड़अ
एना आपन मुंह न मोड़अ
अब हम करब गुजारा
रुपइया-पइसा थोर में

कएला छोड़ के जाइत हतअ
हमरा बनमा घोर में.

उपर्युक्त बज्जिका गीत (हिंदी भावानुवाद में)

क्यों छोड़ के जा रहे हो
मुझे वीरान घोर में
धन कमाने की होड़ में….

तुम्हारा मुख देखने को मैं तरसूंगी
सुनने को बातें तेरी तड़पूंगी
मेरी ये आँखें तो हरदम
भिंगी रहेंगी लोर में

क्यों छोड़ के जा रहे हो
मुझे वीरान घोर में

ननद मुझे ताना मारेगी
और मारेगी सासू झाड़ू से
गोतनी भी परेशान करेगी
आधी रात और भोर में

क्यों छोड़ के जा रहे हो…

तुम अब नौकरी-चाकरी छोड़ो
ऐसे अपना मुंह न मोड़ो
अब हम कर लेंगे गुजारा
रुपैये-पैसे थोड़ (थोड़े) में

क्यों छोड़ के जा रहे हो
मुझे वीरान घोर में.

5.बज्जिकांचल की एक लोककथा : बगिया के गाछी आउर भिखमंगनी बुढ़िया
एगो भिखमंगनी बुढ़िया रहे. ओकर मरदावा मर गेल रहे, जेकरा से ओकरा कए गो बच्चा भेल रहे. मगर सभे बच्चा कम्मे उमर में मर गेल रहे. एक्के गो कोरपोछुया बेटी मरनी, जे सभे से छोट रहे, सेहे केबल बच गेल रहे. ओकर नाव मरनी जानबूझए के रखले रहे ओकर माय. एक त ऊ जन्मे के समय मरते मरते बच गेल रहे अहू ले ई नाम, दोसर, अईला कि बच्चे में ओकर सब भाई बहिन मर गेल रहे तई से डाईन-जोगिन के नजर-गुजर से बचाबे के लेल ख़राब नाव रख देल गेल. कहे बाला त ईहो कहईत रहे कि ई भिखमंगनी बुढ़िया त हँका-हकिन के डायन हई जे खाली अप्पन बाले बच्चा के न भतारो के खा गेल हई.
भिखमंगनी बुढ़िया के अलाबा ओकर टूटल-फूटल मरैया में बस एक्केगो एहे दोसर अदमी रहे, जेकर बियाह ई सोच के क देबे के बुढ़िया सोचइत रहे कि मरनी अब सियान हो रहल हई.
एक दिन के बात हई. भिखमंगनी मांच-चांग के सांझ में अपना घरे लौटइत रहे. ऊ देखलक कि एगो सुन्दर अउर चरफर सियान लइरका चउरी में भइंसी चरा रहल हय. भोला नाव रहे ओकर. जेहन नाव ओइसने गुन. खुब्बे सुसील अउर देखे में बन्हिया. भिखइन एक्के बेर देखलक कि ऊ ओकरा मन में गर गेल. बुढ़िया सोचलक कैला न हम अई लइरका के फुसला-उसला के अपना घर ले जा के अप्पन बेटी से बियाह करबादू. भिखइन ओई लईरका के सब पता-ठेकाना पूछ लेलक आउर तब ई बेयाह बाला फैसला कयलक.
भिखइन एको बरका गो झोरा रखले रहे जइमे भीख में पड़ल चीज रखले रहे. ओइमे कथी हई, ई जाने के लेल ओई छौरा के मन बड़ा कुलबुलायेल रहे. बुढ़िया ई बात बूझ गेल. तनके देरी बतियाके बुढ़िया ओकरा पटिया लेलक. बुढ़िया अब अप्पन जोजना कुछो औरो अगाड़ी बढ़बईत ओई छौरा के कहलक-“”ऐ बउआ, अई झोरा किसिम किसिम के फल-फूल हई. आम, अमधूर, लुच्ची, केरा….खयेबे की?”” भोला मुड़ी हिला के हुंकारी भरलक. त बुढ़िया अप्पन जाल आगे फेकइत कहलक-“”ई सब फल-फूल तोहरे हो जतऊ बस एगो असान बात पूरा कर लेबे.”” “”बोल, कथी?””-भोला पूछलक.
“”अइसने दोसर खाली बोरा में तोरा पइसे के परतऊ अउर बोरा में बंदे हमरा घरे तक चले के होतऊ. ऊ जे ओई गाछी के पास गेरुआ झंडा बाला बरका कोठा लउकई हई ओकरे लंग हम्मर मरइया हई. बस, हमरा पिट्ठी पर बोरा में लदायल उहाँ पहुँचले कि बाजी जीत गेले. फेर, लगले हम तोरा ई सभे फल-उल अऊर कुछ पईसो दे के लउटा देबऊ. बोल बउआ मंजूर हउ?”-बुढ़िया अप्पन घर के तरफ इसारा करइत पुछलक. भोला हुंकारी भर देलक. “त ई ले बोरा बउआ”, बुढिया जभिये कहलक भोला तुरते बोरा में समां गेल. बोरा पुरान रहे, अउरो जहाँ तहां कटल-फटल जेकरा चलते भोला के सोआंस मोसकिल से लेकिन चलइत रहे. बुढिया एहो उमर में मजगूत. बुढिया खुब्बे तेजी से चले लागल. साँझ होए लागल. बुढ़िया एक दू सौ डेंग अगाडी बढ़एल होत कि भोला के किछो गड़बड़ बुझाएल. अब त बोरा में बंद भोला के दम चढ़े से जादा डर से हालत ख़राब हो गेल. ऊ डेरा के छर छर मूत देलक. भिखइन के जब बुझाएल कि हमरा पिट्ठी पर कुच्छो गरम अउर गील गिर रहल है त ऊ रुक गेल और बोरा निच्चे ध देलक. भोला के धिम्मा गिरगिराएल अबाज बाहर आएल-“भिखइन काकी, भिखइन काकी, तनी हमरा पेशाब करबा दा, बड़ा जोर से मुतवास लागल है.”” और, बुढिया जइसे बोरा के मुंह खोललक भोला लत्तो-पत्तो हो गेल. पछाड़ी मुडियो के न देखलक.
तीन चार महीना बीतल भेल कि बुढिया फेर कहियो साँझ के समय घरे लौटइत में वोहे कदम के गाछी लंग भोला के असगरिए भइंसी चरबइत पएलक. ऊ बगिया के गाछी पर चढ़ल रहे. बुढ़िया जईसही नजदीक आएल ओकरा ऊ ओरहन देलक-“”गे बुढ़िया, तू निम्मन न छे, बड़ा खराब छे. ठगनी छे. ओई दिन तोहर मनसा ठीक न रहऊ. तू धोखा दे के आउर बहाना बना के बोरा में मून के कहीं ले जा के हमरा जान से मारे चाहइत रहे. जो, तोहरा से हम बातो कैला करू?”” लेकिन, भोला त भोले रहे. बुढ़िया अप्पन एकलौती दुलरी बेटी के कसम खयलक आउर भोला के नजर में अपना के एकदम्मे सरीफ अउर बेकुसूर साबित करिये लेलक. बुढिया देखलक कि तीर निसाना पर लाग गेल है अउर सिकार तऽ अब फंसिए गेल है. बुढिया कहलक-“बेटा, आई बड़ा असगुन बाला दिन रहल हमरा लेल. दू-चारे दाना अन्न पड़ल हऽ आई झोरा में. दू-चार गो बगिया तोड़ के हमरा हाथ में दे दे बेटा.” लेकिन भोला के मन में अभी खटका लागले रहे, ऊ बोललक-“न गे बुढउरी! तू फेन से हमरा पकड़ के झोरा में बंद करे चाहई हे. जदी, ई बात न हई तऽ तू हाथे में कएला बगिया लेबे चाहई हे? ला, झोरा फइला, हम इ फल तोड़ के ओइमे गिरा देई हइअउ, गन्दा भी न होतउ.”
बुढ़िया कहलक-“तब तऽ बेटा, ई फल अई में गिरके झोराइन हो जतई.” “तऽ एकरा हम घासे में गिरा दे हइअउ, ठीक न?” “न बेटा, तब तऽ ई गिरके घसाइन हो जतई”, बुढ़िया जइसे भोला के संका बड़ा मासूमियत से ख़तम करईत कहलक-“ बेटा, तू हमरा पर बेकारे में सक करई हे अउर हमरा लंग आबे से डेराई हे. अब ई उमर में छल-कपट कर हम अप्पन परलोक बिगाड़ब? ई फल के हम देबता पर चढ़ाएब. एकरा सीधे हाथ में ले के हम सम्हाल के रखब.” अब तऽ भोला ऊ चलाक बुढिया के जाल में फंस गेल. उ बोललक-“तऽ बोल काकी, तोरा हम केना ई फल दिअउ?” “बस, बेटा, तू लबक के हमरा हाथ के तरफ फल बढ़ा दे, हम छबक के झोरा में धऽ लेब.”, बुढ़िया खुस होइत कहलक. अउर, जइसही बगिया तोड़ के गाछी के डाढ़ से निच्चा के ओर झुक के एक हाथ से डार पकड़ दोसर बगिया बाला हाथ बुढिया के और बढ़एलक बुढिया जबान अदमी जइसन ऊपर छड़प के झपट्टा मार के भोला के बढल हाथ बड़ा फुर्ती से पकड़ लेलक अउर निच्चा के तरफ कसके खींच लेलक. तुरते भिखारिन भोला के झोरा में बांध लेलक. फेन अई बेर भोला के डर से मुता गेल, लेकिन बुढ़िया पेसाब से भिंगला के बादो अमकी बेर बोरा रस्ता में कहीं न धएलक. अपना घर पर पहुँचिये के जमीन पर रखलक.
बोरा खोले से पहिले सब बात अउर जोजना बुढ़िया अपना बेटी के फुटकिया के बता देलक. ई जान के मरनी के खुसी के ठेकाना न रहल कि ई लइरका के हम्मर मतारी ह्म्मरा से बियाह कराबे ला आनलई हऽ. ओकर मन अपन होए बाला दूल्हा के देखे के लेल मचल उठल. बुढ़िया एगो कमरा में ले जाके होसियारी से बोरा के मुंह खोलक अउर भोला के बाहर निकाल के ढेंकी से बान्ह देलक. बोरा से बहरा निकल के भोला के अटकल सोआंस अब ठीक होए लगल. लेकिन भोला अपन घबराहट पर काबू रखलक. चेहरा पर कोनो भाव न आबे देबे के कोसिस कएलक. ऊ कुच्छो न बोललक. ओकरा तऽ अब पता चलिए गेल रहे कि बुढ़िया केतना भयानक अउर ठगनी रहे. ओकरा गोस्सा अउर भय समां गेल.

भोला के साथ जे खराब बेवहार मरनी के माय कयले रहे ऊ तऽ ओकरा खुद्दो बन्हिया न लागल, कि केना भोला के जानबर से भी गेल-गुजरल तरीका से धऽ–पकड़ के अउर धोखा से बान्ह-छान के ईहाँ ले अलई हऽ. लेकिन ई सोचके मरनी के मनो गुदगुदाय, कि माइये तऽ ओकरा अइसन बन्हिया सौगात लाके देलक हऽ. तरीका चाहे ख़राब बेढंगा अउर अमानुषिक भले ही रहल. ऊ तुरत सोचलक कि माई के ओर से अभिये हम माफ़ी मांग ले हईअई.
रात में थाकल-माँदल बुढ़िया जब फोंफकार भरे लागल त सुन्दर चुलबुल जबान मरनी भोला के पास पहुंचल. ऊ ममोरल-समोरल अउर मईल सलवार-समीजो में बडा सुन्दर लगइत रहे. भोला भी ओकरा गौर से देखलक. एगो जबान कांच-कुमार के ईगो जबान लइरकी के तरफ सहजे धेयान गेल. लेकिन अपना उमर के एगो जबान सुन्दर लइरकी के एकेले अपना पास हंसइत-मुसकुराइत पा के भी भोला मन मारले रहे, ओकरा तऽ मन में बहुत डर समायल रहे कि पता न बुढ़िया कथी करेला ओकरा भला-फुसला के अउर बोरा में धऽ के इहाँ लाएल हऽ ? ओकरा तऽ अपना जानो मरे के डर समाएल रहे. ओन्नी, कोनो जबान लइरका से असगारिये में मिले अउर बोले-बतियाये के मरनी के ई पहिला बेर मौका मिलल रहे. ओकर तऽ जइसे बिन मंगले मन के साध पूरा होए बाला रहे. भोला के ऊ टुकुर टुकुर हसरत भरल नजर से देखे लागल. कहल गेल हई-खून, खैर और ख़ुसी छुपाबहू से न छुपऽ हई. भोला पर से ओकर नजर हटते न रहे, भोला से ऊ बोले-बतियाए चाहइत रहे, मगर भोला तऽ वोई समय तक बउके-बताह बनल रहे. कुच्छो बोल्बे न करे.
रात जब बहुत बीत गेल, मरनी के काफी समझाबे-बुझाबे अउर निहोरा करे पर भोला मन मारले मारले दो-चार कौर खाना मुंह में रख लेलक. खीर तऽ मरनी आई अपना हाथ से अउर बड़ा अरमान से बनैले रहे कि अपना होए बाला बालम के खिआएब. से भोला मुंह जुठाइयो लेलक तऽ ओकर आत्मा ज़ुरा गेल. ओकरा खुसी के ठेकाना न रहल. अब तऽ मरनी भोला से बोले-बतियाये ला, ओकर बोली सुने ला बेक़रार हो गेल.
एन्ने, मरनी के पेयार अउर बिन छल कपट बाला बेवहार से भोला के लागे लागल कि मरनी सुन्दर, सुसील के साथ साथ बन्हिया लइरकी जरूर हई लेकिन ओकर मतारी के बेवहार के इयाद करते ऊ बेचैन हो गेल, टीइसे, फेन ओकर बिस्वास मेट गेल. ओकरा भारी क्रोध मन में आ गेल. ओकरा मन में दू तरह के भाव आएल. एक कि केहुना इहाँ से भागल जाए दोसर कि भागे से पहिले कोनो तरह से बदला लेल जाये बुढ़िया से. ऊ कुछ सोचे लागल तऽ ओकरा एगो उपाए मन में सूझल. ऊ आब मरनी लंग ई देखाबे के कोसिस करे लागल कि जइसे हमरा मन में कोई दुःख न हए अउर हम मरनी के बात-बेवहार से खुश हती.

भोला के लइरकी जइसन लमहर लमहर अउर एकदम्म करिया केस रहे. अइ से ऊ देखे में खूब सुन्दर लगइत रहे. मरनी तऽ जइसे ओकर सुनर-लमहर केस देख के लोभा गेल रहे. मरनी के अप्पन केस बहुत छोट छोट रहे. भोला के केस एहन लमहर केना होएल, ई बात जाने के लेल ऊ बेचैन हो गेल. भोला से ई बात ऊ जाने तऽ चाहइत रहे मुदा डेराइतो रहे कि कहीं ऊ डांट न देबे. बाकी, ऊ डेराइते-“डेराइते भोला से पुछलक-“भोला, एगो बात तोरा से पूछियो?” भोला मुड़ी हिला के हुंकारी भरलक. अब तऽ मरनी के डर बिला गेल. ऊ फट से अप्पन कोसचन अगाडी कएलक-“तऽ ई बतावा, तोहर केस एतना जादे लमहर, घन अउर करिया केना भे गेलो? हमरा तऽ तोहरे सन केस चाही.” “एकदम असान हई एहन केस बनाबे के लेल”, भोला एकदम्मे भोला बनइत कहलक, “हमर माई कहई हई कि ऊ ओखरी में हम्मर मुड़ी धऽ के हौले हौले मूसर से कूट देलकई तऽ तनके दिन में हम्मर झोंटा एहन लौगर हो गेलई.” मरनी के ओकर ई झूठ बात पर भरोसा भे गेल. ऊ भोला के कहलक-“तऽ भोला, हम्मर केस अपना जइसन अभिये बना दा न! ई देखाऽ, ईंहे पर ओखरी अउर मूसर धएल हई.” अउर एतना कहके दउड़ के ऊ मूसर उठा लेलक अउर जाके भोला के हाथ में पकड़ा देलक. एन्ने भोला सोचइत रहे कि एक्के साथ दू गो मौका आ गेल है. मरनी के मार के ओकर मतारी के धोखा अउर ख़राब बेवहार के बदला हम ले लेब अउर भागियो जाएब. लेकिन, मरनी जभिये मूसर अपना हाथ में रख मरनी के मुड़ी पर मारे ला कएलक कि ओकर हाथ उठल के उठले रह गेल, थरथराये लागल. धोखा के बदला धोखा, ई ओकर आत्मा के न मंजूर भेल. लागल जइसे ओकर अकिले हेरा गेल. ऊ हाथ में मूसर उठएले खड़ा रह गेल. एन्ने मरनी मूसर के धमक सुने ला बेचैन रहे. मूसर के चोट अपना केस पर पड़े में देर होइत देख ऊ भोला पर मुड़ी उठा के तकलक. ऊ देखलक कि भोला के आँख से लोर झर रहल हए. भोला के कनइत देख ओकरा आसचरज भेल. भोला के जब मरनी टोकलक तऽ ऊ सुबक सुबक के काने लागल. मरनी के न बुझाइत रहे कि भोला के एकाएक कथी हो गेलई कि ऊ काने लगलई हऽ? भोला कनइत-कनइत अप्पन मन के सब बात बता देलक. भोला के मन में जे गोस्सा अउर अबिसबास चल आएल रहे ऊ तऽ सहजे रहे लेकिन मरनी के बेवहार में जे अपनापन रहे, तनिको छल-कपट न रहे ऊ भोला के गोस्सा अउर अबिसबास के जीत लेलक.
मरनी के लाज-शरम अब जइसे मेटा गेल. भोला पर ओकर पेयार उमड़ आएल. ऊ दू हाथ दूर खड़ा भोला के पास चल गेल अउर ओकरा अप्पन दुन्नो बांह फइला के कस के पकड़ लेलक अउर ओकरा छाती से चिपक के फफक फफक के काने लागल. भोलो के बांह अपनेआप मरनी के दुन्नो ओर से पकड़ लेलक. दुन्नो के गरम गरम सोआंस लोहार के भाँथी के जइसन हाली हाली चले लागल…

बगिया का पेड़ और बुढ़िया भिखारिन (हिंदी अनुवाद) : एक भिखारिन बुढ़िया थी. एक ‘कोरपोछुआ’ बेटी मरनी, जो सबसे छोटी थी वह ही केवल बची थी. वह थी तो बला की खूबसूरत पर एक गरीब घर में पैदा हुई थी. उसका मरनी नाम जानबूझ के रखा था उसकी माँ ने. एक तो वह जन्म के समय ही मरते मरते बची थी, इसलिए भी यह नाम, दूसरे कि अन्य सब संतानों को उनकी छुटपन में ही ही खो चुकी माँ ने एक शगुन यानी गाँव-देहात की सुनी-सुनाई बात और परम्परा के तहत वह नाम रखा था कि बुरे नाम वाले बच्चे पर डायन-जोगन आदि की बुरी नजर नहीं लगती. कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि भिखारिन माँ तो खुद ही हँका-हकिन की डायन है जिसने अपने पति समेत बच्चों को भी खा लिया!
भिखारिन के अलावा उसकी टूटी-फूटी झोपड़ी में यही बस एक अन्य सदस्य उसकी बेटी मरनी रहती थी जिसकी शादी कर देने का मन बना रही थी यह सोच कर कि वह अब सयानी हो गयी है.
हाँ, तो एक दिन की बात है, भिखारिन मांच-चांग कर जब शाम को वापस घर लौट रही थी तो पास के गाँव के एक चौर में भैंस चराते एक चपल-सुन्दर किशोर को देखा. भोला नाम था उसका. यथा नाम तथा गुण. निहायत ही विनम्र और आकर्षक डील-डौल. एक ही नजर में वह भिखारिन को भा गया. भिखारिन ने सोचा कि क्यों न इस बालक को बहला-फुसला कर घर ले जाऊं और इससे अपनी बेटी का ब्याह रचा दूँ. भिखारिन ने उस लड़के से पहले तो उसका पता-ठिकाना और माँ-बाप के बारे पूछ लिया फिर यह निर्णय लिया था.
भिखारिन ने एक बड़ा सा झोला अपने पास रखा था जिसमें भीख में मिली वस्तुएं और अनाज थे. किशोर को उस बोरे के अन्दर रखी वस्तुओं के बारे में जानने की तीव्र उत्कंठा थी. बुढ़िया बात तार गयी. कुछ देर की बातचीत में ही भोला उस भिखारिन से पटिया (घुल-मिल) गया था.
बुढ़िया ने अपनी योजना की ओर एक कदम और बढ़ाते हुए बालक से कहा-“ऐ बाबू! इसमें ढेर सारे फल हैं. अमरुद, आम, लीची, केले. क्या तुम खाओगे? ” भोला ने हाँ में अपनी मुंडी हिलाई. जाल आगे फेंकते हुए बुढ़िया ने कहा-“ बाबू, ये सारे फल तेरे हो जायेंगे बस, अगर तू एक आसान शर्त पूरा कर सको.” “वह क्या?”-भोला ने पूछा.
“ऐसे ही दूसरे खाली बोरे में तुम्हें घुसना होगा और बंद ही मेरे घर तक चलना होगा. वह जो सामने उस पेड़ के पास भगवा झंडा वाला बड़ा मकान दिख रहा है उसी के पास मेरी झोपड़ी है. बस, तुम वहां मेरी पीठ पर लदे बोरे में पहुंचे और शर्त जीत गए. फिर मैं तुम्हें ये सारे फल और साथ ही कुछ पैसे भी देकर फ़ौरन वापस विदा भी कर दूंगी. बोलो मंजूर?”-बुढ़िया अपना घर इशारा कर दिखाते हुए बोली. भोला ने हामी भर दी. “तो ठीक है. यह लो, बोरा”. भोला फ़ौरन बोरे में घुस गया. इधर, सचेत बुढ़िया ने चट से बोरे का मुंह बांध दिया और उसे पीठ पर लाद आगे चल दी. बोरा पुराना था और कहीं कहीं से फटा हुआ, जिससे उसके अंदर भोला की साँस तो चल रही थी पर बड़ी मुश्किल से. इस उम्र में भी हट्ठी-कट्ठी बुढ़िया तेज कदमों से आगे बढ़ने लगी. साँझ भी ढलने को थी. बुढ़िया सौ-दो सौ कदम आगे बढ़ी होगी कि भोला को कुछ बुरे का अंदेशा हुआ. अब बोरे में बंद भोला का घुटन और डर से बुरा हाल था. उसकी पेशाब निकल आई. पेशाब की गर्मी ने जब भिखारिन की पीठ पर अपना अहसास कराया तो वह फौरन रुक गयी और बोरा को नीचे रखा. भोला की धीमी आवाज़ बाहर आई-“भिखारिन चाची, भिखारिन चाची, मुझे थोड़ी सू-सू करवा दो, फिर आगे बढ़ना.” और बुढ़िया ने ज्यों ही बोरा का मुख खोला भोला लत्तो-पत्तो हो गया. सर पर पैर रखकर भाग खड़ा हुआ. पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं.
तीन-चार महीने बीते. बुढ़िया फिर एक शाम अपने घर को वापस लौट रही थी कि उसी कदम के पेड़ के पास भोला चरवाही करता मिला. वह बगिया के पेड़ पर चढ़ा हुआ था. बुढ़िया के पास आते ही उसने शिकायत की-“बुढ़िया, तुम बहुत बुरी हो. उस दिन उसका इरादा अच्छा नहीं था. तुम बोरे में धोखे और बहाने से बंद कर कहीं ले जाकर मेरा कुछ बुरा करना चाह रही थी. जाओ, तुमसे मुझे बात भी नहीं करना.” भोला तो आखिर भोला था. बुढ़िया ने अपनी इकलौती बेटी की कसम खाई और भोला की नजर में अपने को निहायत ही शरीफ और पाक-साफ़ साबित कर ही लिया. बुढ़िया ने देखा कि तीर निशाने पर लग चुका है और शिकार झोली में गिरा ही चाहता है-“बेटा, आज बड़ा अपशकुन वाला दिन ठहरा मेरे लिए. भीख में दो-चार दाना अन्न ही मिले हैं झोली में. फल-फूल तो कुछ भी नहीं मिला आज. दो-चार दाना बगिया का तोड़ कर मेरे हाथ में दे दो बेटा.” पर भोला के मन की शंका अभी निःशेष न हुई थी. वह बोला-“नहीं बुढ़िया, तुम फिर मुझे पकड़कर अपनी झोली में बंद करना चाहती है. यदि ऐसी बात नहीं है तो हाथ में ही तुम क्यों बगिया का फल लेना चाहती है, झोली में क्यों नहीं लोकना चाहती है तू? लो, झोली फैलाओ, मैं ये फल तोड़ के गिरा देता हूँ, गन्दा भी नहीं होगा.”
बुढ़िया ने कहा-“तब तो ये फल इसमें गिरकर झोलाइन हो जाएँगे.” “तो फिर मैं घास पर ही इन्हें गिरा देता हूँ, ठीक न?” “नहीं बेटे, फिर ये गिरकर घसाइन हो जायेंगे.” बुढ़िया ने जैसे भोला की शंका का बड़ी मासूमियत से निवारण करते हुए कहा-“बेटा, तू मुझपर नाहक ही शक करता है और मेरे पास आने से डरता है. अब इस उमर में भला मैं कोई छल-प्रपंच कर अपना परलोक बिगाडूँगी? इन फलों को मैं देवता पर चढ़ाऊँगी, सो, सीधे हाथ में लेकर इन्हें एहतियात से रखूंगी.” अब भोला उस शातिर बुढ़िया के झांसे में आ चुकी था. उसने कहा-“तो बोल, चाची, कैसे दूँ फल तुझे?” बस, बेटा, तू लबक के मेरे हाथ के पास फल बढ़ा दे, मैं छबक के उन्हें हाथ में पकड़ता जाऊंगा और अपनी झोली में रखता जाऊंगा.” और, जैसे ही पहला ही फल तोड़ भोला ने पेड़ की डाली से नीचे की ओर झुकते हुए एक हाथ से डाली पकडे दूसरा बगिया वाला हाथ बुढ़िया की ओर बढाया, बुढ़िया ने जवान सा ऊपर छलांग मारते हुए झपट्टा मार भोला का बढ़ा हाथ बड़ी फुर्ती से पकड़ लिया और नीचे की ओर मजबूती से खींच लिया. अगले ही पल भोला भिखारिन की झोली में बंध चुका था. इस बार फिर से भोला को रास्ते में पेशाब हो गई और भरपूर हुई, पर पेशाब से नहा जाने के बावजूद उसने अपने घर पहुँच ही बोरे को जमीन पर रखा.
बोरा को खोलने से पहले सारी बात और योजना बुढ़िया ने अपनी बेटी को एकांत में समझा दी. यह जानकर मरनी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा कि इस किशोर से उसकी शादी होगी. वह अपने होने वाले दूल्हे को देखने को मचल उठी. बुढ़िया ने एक कमरे में ले जाकर सावधानी से बोरे का मुंह खोला और भोला को बाहर निकाल कर ढेंकी से बांध दिया. बोरे से बाहर निकल भोला की अटकी सी सांसे अब सामान्य हो रही थीं. पर भोला ने अपनी घबराहट पर काबू कर रखा था. चेहरा को सामान्य बनाने की भरसक कोशिश में था. कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहा था. बुढ़िया की कुटिलता उसके सामने थी. वह गुस्सा और भय से काँप रहा था.

भोला के प्रति अपनी माँ का यह बर्ताव मरनी को भी बेशक बुरा तो लगा था कि कैसे उसे जानवर से भी बुरे तरीके से और छल-छद्म के सहारे यहाँ लाया गया था, पर यह सोचकर रोमांच भी हो आ रहा था, कि माँ ने ही तो आखिर उसे यह प्यारी सौगात लाकर दी थी. तरीका चाहे बुरा-बेढब और अमानुषिक भले ही हो. उसने तत्क्षण ही सोच लिया कि माँ की ओर से अभी ही मैं क्षमा मांग लूंगी.
रात में थकी-मांदी बुढ़िया जब खर्राटे भरने लगी तो उसकी सुन्दर चंचल सी किशोरी बेटी उसके पास आई. वह मैले-कुचैले सलवार-समीज में भी बड़ी प्यारी लग रही थी. एक किशोर का विपरीत सेक्स के प्रति स्वाभाविक दैहिक आकर्षण. पर जिस भयावह तरीके से वह यहाँ लाया गया था यह अपूर्व मौका भी उसे किसी अनागत-अनजाने भय के चलते बहुत सुखकर नहीं लग था था. उधर, मरनी के लिए भी किसी हमउम्र और विपरीत सेक्स से खुलकर मिलने और बोलने-बतियाने का यह पहला सुअवसर था. उसकी तो मानो बिन मांगे ही मुराद पूरी हो गयी थी. भोला के प्रति उसका खिंचाव सहज ही लक्षित हो रहा था. कहते हैं, खून, खैर और ख़ुशी छुपाये नहीं छुपती. वह उसे मनभर देखना चाहती थी, बोलना-बतियाना चाहती थी. मगर भोला का चेहरा उड़ा हुआ था, भयाक्रांत था, उसके बंधन मरनी द्वारा खोल दिए जाने के बावज़ूद, उसकी ओर से कोई सकारात्मक संकेत मिलना तो दूर की बात थी. मरनी के किसी भी प्रश्न का उत्तर वह हाँ, हूँ से अधिक में दे नहीं रहा था. रात अब अधिक बीत चुकी थी, मरनी के समझाने-बुझाने-अनुनय-विनय का जतन जारी था. प्रभाव यह हुआ कि भोला ने अनमने ही सही दो-चार कौर खाना मुंह में डाल लिया, खीर तो मरनी ने अपने हाथों से और आज बड़े अरमान से बनाई थी. सो उसे तृप्ति मिली. उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. अब वह भोला से बोलने-बतियाने को बेक़रार हो गयी.
इधर, मरनी के आत्मीय व्यवहार में भोला ने एक आश्वासन तो जरूर पाया था पर यह सर्वथा निष्कपट ही था यह मानने को उसका दिल अबतक तैयार न था. दूध का जला मट्ठा भी फूंक फूंक कर पीता है. उसकी मां से मिला धोखा और छल अभी ताज़ा था. भोला अभी भी भयातुर था और भागने की जुगत में था. उसे एक युक्ति सूझी. उसने अपनेआप को सहज करने की कोशिश की और आगे से मरनी के सद्व्यवहार के प्रति स्वीकार भाव दीखने का मन बनाया.
भोला के लड़की के से बड़े बड़े काले-कजरारे बाल उसकी आकर्षक देश-दशा और सुन्दर चेहरे-मोहरे पर सोने में सुंगंध की तरह शोभते थे. मरनी तो जैसे उसके इन सुन्दर बालों को देख सम्मोहित हो गयी थी. उसके अपने बाल काफी छोटे थे. भोला के बाल इतने सुन्दर कैसे बने, यह जानने की उत्कंठा उसके अन्दर हिलोरें मार रही थीं. भोला के मूड को भांप डरते-हिचकते उसने कहा-“भोला एक बात पूछूं? तुम्हारे बाल इतने बड़े घने और काले कैसे हैं? मुझे तो तुम्हारे जैसे बाल चाहिए.” “बहुत आसान है. मेरी मां ने मुझे कभी बताया था कि उन्होंने ओखल में मेरा सर डाल हौले से उसे मूसल से कूट दिया था, और मेरे बाल ऐसे सुन्दर लम्बे बन गये.”-भोला ने सहज चित्त होकर कहा. पर अन्दर ही अन्दर वह खुश था कि अब दोहरा मौका है. भिखारिन की इस बेटी को ओखली में कुचल कर मार कर उसकी मां के बुरे बर्ताव का बदला ले लूँगा और अभी ही भाग भी निकलूंगा. “तो भोला, देर किस बात की, मेरे बाल भी अपने जैसे बना दो न. यह देखो यहीं कोने में ओखल और मूसल पड़ी है.”- आतुर मरनी ने झट ओखल के पास जाकर कहा और भोला के वहां पहुँचते ही उसने अपना सर ओखल में डाल मूसल चलाने को कहा. भोला ने एकबारगी मूसल उठाया भी पर मरनी के सर पर मारने उठे उसके हाथ कांपने लगे. उसने अपने हाथ वापस खींच लिए. मूसल एक ओर रख वह ओखल के पास खड़े खड़े वह हुचकी मार मार कर सुबकने लगा था. मरनी जो अपना सर ओखल में गाड़े हुई थी और मूसल की चोट का बेसब्र इंतजार कर रही थी, भोला को रोते देख अचंभित थी. उठ खड़ी हुई, वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर माजरा क्या है? भोला ने सुबकते सुबकते अपने मन की सारी बात बता दी. भोला के चित के अन्दर घर कर आये स्वाभाविक अविश्वास और आक्रोश के बर्फ का उत्ताप अब एक झटके में पिघल चुका था. मरनी के लिए भी अब संकोच और हिचक का कोई आवरण न रख अपने मन को खोल देने का अवसर था! वह महज दो हाथ की दूरी पर खड़े भोला पर जा गिरी और उसे अपनी बांहों में कसकर भींच लिया. वह फफक फफक कर रो पड़ी थी. भोला की बाहें भी स्वतः मरनी को आलिंगन बद्ध करने को आगे बढ़ चली थीं. दोनों ओर से गर्म गर्म सांसों की धौंकनी चलने लगी थी….
*कथा-स्रोत : इन पंक्तियों के लेखक (मुसाफिर बैठा) की माँ के मुख से बज्जिका में सुनी लोककथा

6. बज्जिका में रिश्तों के नाम (हिंदी में शब्दार्थ के साथ): माई/मतारी/ईआ (माँ), बाबू/बाबूजी (पिता), बाबा (दादा), दाई/आजी (दादी), भतार (भर्तार/पति-व्यंग्य/अपमान बोधक प्रयोग), जनानी/मउगी (औरत/पत्नी), बौह/मेहरारू (बीवी), मरद (आदमी/ पति), धिया (बेटी), जईधी (बहन की बेटी), कनियां (बहू/ नई दुल्हन), पुतोह (पतोहू), गोतनी/देयादिन (पति के भाई की पत्नी), सउतिन (सौतन), देओर-भौजाई/भउजी (देवर एवं भाभी), भाभो (भावज), भंइसुर (भैंसुर, पति का बड़ा भाई), नन्दोसी (ननदोई), दमाद (दामाद), लौंडा (सयाना लड़का/समलैंगिक), छौंड़ा एवं छौड़ी (लड़का एवं लड़की), बौआ (बेटा/बेटी यानी बच्चे को दुलार-स्नेह से पुकारा जाने वाला नाम), मउसिआउत भाई (मौसी का बेटा), फुफुआउत भाई (फुआ का बेटा), ममिआउत भाई, (मामा का बेटा), समधउत (समधी का बेटा यानी पतोहू का भाई), सतवा (सौतेला),ननदोसी (ननदोई) आदि.
7.बज्जिका में रंगों के नाम (हिंदी में शब्दार्थ के साथ): करिया (काला), हरियर (हरा), उज्जर (उजला/सफ़ेद), पीयर (पीला), गेहुंआ (कम गोरा), सुत्थर (सुन्दर), निम्मन (अच्छा), गोर (गोरा), गोरका (गोरे रंग का), ललका (लाल रंग का), उजरका (उजले रंग का), पियरका (पीले रंग का), हरियरका (हरे रंग का), करियकवा/करिक्का (काले रंग का), भोगजियार (अच्छी तरह से/गहरा दिखना, बोल्ड) आदि.
8.समय और स्थान से जुड़े शब्द (हिंदी में शब्दार्थ के साथ): भिन्सार/भोर (सुबह), साँझ/संझिया (शाम), दुपहरिया (दोपहर), अन्हार (अंधेरा), इंजोर/इजोत (प्रकाश/उजाला), बैठका (दालान), दूरा (घर के बैठका/दालान से लगी खुली जगह) अंगना (आँगन), बारी (घर से लगी सब्जी-फूल-फल लगाने की जगह), चौर/चौरी (सूखा/बाढ़ से प्रभावित कृषि भूमि जिसमें हर मौसम में फसल नहीं उगाई जा सके), डेरा (अस्थायी निवास स्थान), डीह (गाँव के बाहर पेड़-पौधों वाला स्थान), रस्ता (रास्ता), आरी (मेड़), गाछी (पेड़ों का समूह), बनखत( बाढ़ से प्रभावित/टूटा बांध), मन (बाढ़ के पानी के तेज़ बहाव से बना जल युक्त गड्ढा), भन्सा/भंसार घर (किचेन/रसोईघर), सोईंरी घर (प्रसूति घर), सोमार (सोमवार), रब (रविवार), बिफे (वृहस्पतिवार), सनीचर (शनिवार), नच्छत्तर (नक्षत्र), जार (जाड़ा), महीनों के नाम : चइत (चैत), बइसाख (बैसाख), जेठ (जेठ/ज्येष्ठ), असाढ़ (आषाढ़), साबन (सावन), भादो (भादो), आसिन (आश्विन), कातिक (कार्तिक), अगहन (अगहन), पूस (पूस), फागुन (फागुन/फाल्गुन), पुरबारी (पूरब रुख का, पूरब वाला), पछिमवारी (पश्चिम वाला), दखिनबारी (दक्षिण वाला), चउराहा (चौराहा), बरमसिया (बारहमासी) आदि.

Writer/Sender : Dr. Musafir Baitha (लेखक/प्रेषक : डा. मुसाफ़िर बैठा)
Contact address : Basanti Niwas, Behind, Prem Bhawan, Durga Ashram Gali, Sheikhpura, P.O.- B. V. College, Sheikhpura, Patna (Bihar), Pin code- 800014
Mobile no. 7903360047

Language: Hindi
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