*बचपन*
बचपन ….!
था कितना निष्पाप,
कितना निष्कलंक,
कितना स्वतंत्र,
न चिंता थी न फिक्र –
बस किस्से राजकुमारी के
और परियों का था जिक्र –
कुछ रंग-बिरंगी सीपियाँ –
कुछ चमचमाते कंचे,
कुछ टूटी चूड़ियों के टुकड़े,
कुछ सूखी गुलाब की पंखुरियाँ –
ये सारे ख़ज़ाने –
जाने-अनजाने –
हमें होते थे प्यारे
हीरे-जवाहरात से ज्यादा
और इनकी हिफ़ाज़त ऐसे की जाती थी
जैसे करोड़ों की संपत्ति हो ।
आज ऊंचे से ऊंचा ओहदा पाकर भी
कहाँ मिलता है वह सुख
जो मिल जाता था अनायास ही
बचपन में
राजा का किरदार निभा कर –
मन पर मनों बोझ सहने की
विवशता नहीं होती थी,
बस हर दुख हल्का कर लेते थे
बेशुमार आँसू बहा कर –
झूठ, फरेब, मतलब की दुनिया से
कोई सरोकार नहीं था –
अपने घर की चारदीवारी –
थी जागीर हमारी –
और मिलता दुनिया भर का प्यार यहीं था –
जो आजू- बाजू रहते थे –
सब अपने से लगते थे,
हम उनको चाचा-चाची, मांमा-मामी,
दीदी-भैया कहते थे –
दोस्तों को नहीं था मतलब –
किसकी क्या है जाति
और किसका क्या है मज़हब –
काश कि वह खुशहाल अतीत,
हम दुहरा सकते फिर एक बार –
और हटा सकते अपने सर पर लटकी
ईर्ष्या-द्वेष, मतभेद, तनाव –
स्वार्थ, स्पर्धा, भेद-भाव –
की नंगी तलवार ।