बचपन
बचपन
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महलों में कहीं पल रहा बचपन,
किलकारियों से गूंज रहा है।
भूखा तन कहीं जूठे पत्तल पर,
बाल सुलभ मन तड़प रहा हैं।
सड़कों पर बीत रहा जो बचपन,
अंगारों सा क्यूँ दहक रहा है ।
होगी कब तक ऐसी विषमता,
अपना भारत पूछ रहा है।
बाल श्रमिक बनकर कोई क्यूँ ,
घर परिवार की क्षुधा मिटाता।
खिलौने संग कोई मस्ती करता,
हवेलियों में कैसे ठुमक रहा है।
कलम थामने की आयु में,
हाथ मांजता बर्तन कोई।
मन में बसते अरमाँ उनके,
धूं धूं कर कर क्यूँ धधक रहा है ।
होगी कब तक ऐसी विषमता,
अपना भारत पूछ रहा है।
देखो जिम्मेदारियों का बोझ उठाना,
सिखला दी भूख ने समय से पहले।
ईंटे गढ़कर, मखाना फोड़कर ,
पेट की आग बुझाता बचपन ।
वक़्त की स्याही से लिखी हुई किस्मत,
दर्द-ए-दिल लिए भटक रहा है।
होगी कब तक ऐसी विषमता,
अपना भारत पूछ रहा है।
संभ्रांत घरों के युवक को देखो,
हुनर और काबिलियत गुम हो रही अब ।
बाप के कंधों आश्रित होकर,
मयखानों में बहक रहा है।
और दीनों का सिसकता बचपन,
फुटपाथों पर समय गुजारे।
फर्ज लिए संतति जीवन का ,
पग पग पर क्यूँ वो ठिठक रहा है।
होगी कब तक ऐसी विषमता,
अपना भारत पूछ रहा है।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )