बचपन
चारदिवारी में कैद
अक्सर मुर्झा जातीं हैं
नन्ही कलियाँ
की बचपन डरा सहमा सा
झांकता दीवारों के उस पार
देखता है रंगीन तितलियां
खूबसूरत फूल
उगता, डूबता सूरज
टिमटिमाते जुगनू
पर मन मसोस कर रह जाता है कि
उसकी हदों के पार
जो दुनियाँ है
उसे जादुई सी लगती है
और आते जाते लोग
अजूबे
हर आहट पैदा करती है
खौफ़
और नन्ही कलियाँ
समेट कर अपनी पंखुड़ियां
छुप जातीं हैं चुपचाप
की बचपन अब बचपन नहीं
गुनाह हो
या वहशियों के हाथों का खिलौना