“बचपन से देखा है पापा को”
बचपन से देखा है पापा को बचत करते हुए
सोचती थी की क्या हो जायेगा अगर दो चार ज्यादा खर्च हुए…
बचपन से देखा है पापा को हमको सुबह उठाते
सोचती थी क्या हो जायेगा तो अगर थोड़ा देर से उठाते…
बचपन से देखा है पापा को गलतियो पर डाटते फटकारते
सोचती थी की क्या हो जायेगा अगर थोड़ा सा दुलारते …
बचपन से देखा है पापा को हमारे लिए जीते
सोचती थी क्या हो जायेगा जो कुछ पल अपने लिए जीते…
बचपन से लेकर आज तक देख रही हूँ
पापा नही बदले
बदल गई मेरी ही सोच,
ज़रूरी है बचत हर चीज की
ज़रुरत है सुबह की पहली धूप की
ज़रुरत है थोडी से गुस्से की भी और
ज़रूरी है अपनो से ज्यादा अपने बच्चो के लिए जीने की
सुरभी