*बंदी मुलाक़ात*
कतारवद्ध खड़ा मै
टकटकी लगाए
विशाल लौह दरवाजे को देखता हूँ
उसके खुलते ही कुछ प्रकाश चमका
उस प्रकाश में अनगिनत चेहरे
कुछ में उमंग, कुछ में उत्साह,
कुछ में व्य्था-विनित चित्कार
मैनें उसे देखा
चेहरे पर व्याकुलता
मेरी नजरें फिसलती हुई
उसके आँखों के समंदर में खो गया
आँखों की कातरता, आँसुओं में तैरने लगी
चेहरे पर व्याप्त उदासीनता
होंठों पर आकर ठहर गई
कुछ आँसुओं की बुँदे
मलीन कपोलों पर लुढ़क गए
कंठ से एक टूटती हुई आवाज निकली
“कब आओगे”
और कुछ शब्दों को आँसुओं ने कह दिया
जहाँ दर्द था, पीड़ा की कहानी थी
घर गृहस्थी का बोझ था
जिम्मेवारियों का वचन था
मै निरुतर था क्या कहता
उस गरीब पल में मेरे पास
कोई शब्द शेष न था
जिसे साझा कर
उसके वेदना को कम करता
वैसा कोई अवशेष न था
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