बँटवारा (मार्मिक कविता)
आज भाइयों के बीच कहा सुनी हो रही
क्योंकि बँटवारा जो हो रहा है
लेकिन ये लड़ाई वो नहीं
जब पिता कुछ खाने को लाते थे
और ये लड़ते थे झगड़ते थे
और बाँटकर खाते थे।
कभी एक ही थाली में
दोनों बैठकर खाते थे
एक दूसरे को स्नेह से निहारते थे
उफ़ ! ये बँटवारा ! आज
एक दूसरे को देखना भी नहीं चाहते।
बाबूजी बीमार हैं
उनका कोई आस नहीं
दोनों बोलते पिता अभी उनके हिस्से में नहीं है
बुढापे में एक लोटा पानी नसीब नहीं
उफ़ ! ये बँटवारा ! आज
पिता भी बँट गए।
छोटी बहू आज झल्ला रही है
तो क्या बड़ी किसी से कम है
और ये कलह बढ़ता ही जा रहा
उफ़ ! ये बँटवारा ! आज
पिता संताप से मर रहे।
आज बूढ़े के आँखों से झर झर आँसू गिर रहे
लेकिन वो किसे बुलाए वो तो हैं बँटे हुए
बराबर बाँटने के बाद भी उनके नजर में चढ़े हुए
उफ़ ! ये बँटवारा ! संतान के नजर में
पिता बेईमान हो गए।
हमें आजादी से जीने तो दो
सुख चैन से मरने तो दो
बूढा कातर हो मिन्नते कर रहा
उफ़ ! ये बँटवारा ! आज
कपूत उन्हें जबरन गंगा लाभ करा रहे।
आज मन के हारे ग़म के मारे
बूढ़े की जान एक ही डुबकी से निकल गए
ये सुनकर सबके आँखों में आँसू आ गए
उफ़ ! ये बँटवारा ! “किशन”
सबको अंतिम संस्कार के लिए बुला रहे।
ये जमाने का दोष या संस्कार का
जो माँ – बाप का सत्कार नहीं करते
जीते जी बात बात में दुत्कारते
उफ़ ! उसे मारने या मरने के बाद
पाँच गाँव को कचौड़ी जलेबी खिलाते।
मैं किससे कहूँ उस बूढ़े का दुःख
जो संतान के लिए सदा ढूँढता रहा सुख
आज उस पिता के अकाल मृत्यु देखकर
“कारीगर” हाथ जोड़कर कह रहा
मत करो ऐसा बँटवारा !
मत करो ऐसा बँटवारा !!
मत करो ऐसा बँटवारा !!!
मूल- डॉ०किशन कारीगर