फ्लेशबैक
मैं भी कभी बच्ची थी,
बड़ी नाज़ों से पली थी ।
हर इम्तिहान में ,
बिलकुल खरी उतरी थी ।
हारने का डर सताता था,
इसलिए जीत के लिए लड़ी थी ।
राह में रोड़े बहुत थे,
लेकिन मुझे संभालने को ,
मेरे अभिभावक खड़े थे ।
मित्रता के नाम पर,
मेरी सखी-सहेली वो थी ,
जिसने मुझे ज़िंदगी दी थी ।
जब-जब दर्पण में झाँकती हूँ,
उनका ही प्रतिबिंब पाती हूँ ।
आज में बहुत बड़ी हो गई,
उनके कंधे से ऊँची हो गई ,
और तो और मेरी दो बेटियाँ,
मेरे कंधों से ऊँची हो गईं ।
घर -गृहस्थी में मैं ,
इतना खो गई,
देखो अपने-आप को भूल गई,
कहती थी अक्सर मम्मी को,
कभी अपने लिए जिया करो ,
आज मैं बिलकुल,
उन जैसी हो गई ।
इस नवीन पीढ़ी को देख ,
बचपन याद दिलाता है ।
वो सब में, मैं मैं ..करते हैं,
हम सब को भूल कर ,
अपने लिए जीते हैं ।
माँ दूसरों के लिए जीना सिखाती थीं,
सब मिल बाँट कर खाती थी ,
मुझे भी यही बताती थीं ।
अपने लिए जीऊँ ,
ये सोच गलत है,
अक्सर ये समझाती थीं ….
अक्सर ये समझाती थीं …..