फैसला
दुआएँ कुबूल हो गई ,उनकी
इश्क से पहले इबादत,
कर गई थी जिसकी,
सौ बार सोचती हूँ उसे
हर लम्हा पूजती थी, जिसे
सबसे बड़ा सत्य यह भी है।
औरत के रूप में , पति का सम्मान ।
बच्ची के रूप में , पिता का सम्मान ।
लड़की के रूप में , भाई का सम्मान ।
नारी के रूप मे,नर का सम्मान |
फिर भी ना प्यार ना सम्मान , नारी के नाम।
हकीकत में फरमान है।
नारी आज भी वस्तु समान है।
आजकल शादी भी ,मर्यादित संस्कार नहीं।
चले तो ठीक है वरना हम से,
सीधे संवाद, मैं और तू।
बढ़ जाती है झंझट तो ,
मोहब्बत भी अदालत के नाम।
फिर तारीख पे तारीख,
कचहरी परिसर का चक्कर।
पैसों, समय की बर्बादी ,
उम्र- गुजर जाती है ।
व्यक्ति (स्त्री-पुरुष ) लटक जाता है ।
फैसला अकट जाती है।
हिंदू में कितने मर्द हैं दिव्य राम।
फिर भी मर्दों का सम्मान हैं।
मुस्लिम में कितने मर्द पैगंबर मोहम्मद हैं।
फिर भी मर्दों की इज्जत है ।
ईसाई में कितने मर्द ईशू हैं।
फिर भी मर्दों स्टेट्स हैं।
दुनियाँ की आधी आबादी नारी, सिर्फ है बेचारी ।
ना दें ये सहारा तो खाने – पीने , आशियाने की,मोहताज,
लानत हैं,नारी
शुरू से अंत तक छाया, पंगु बना गुजार देती हैं जिंदगी।
ऐसी स्थिति में बराबरी की चाह रखना।
अपने-आप में बेईमानी है।
कोसों दूर,ये रखने-छोड़ने की इल्तिजा ( निवेदन ) हैं।
_ डॉ. सीमा कुमारी, बिहार ( भागलपुर )
दिनांक – 5-1-022 की स्वरचित रचना जिसे आज प्रकाशित कर रही हूं।