“फिर से चिपको”
फिर से “चिपको”
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धरती की अब यही पुकार,
पेड़ पौधे सहित पर्यावरण का मिले प्यार।
नही तो ये धरा बिखर जायेगी,
फिर सब पर अपना कहर बरपाएगी।।
इस धरा के चारों ओर जो हरा भरा आवरण है,
वही इसके आभूषण रूपी पर्यावरण है।
जिससे मिलते; फल,फूल और सब दवा,
ये ही जब हिलते,मचलते तो उसे कहते शुद्ध हवा।।
आज तरस रहे हर प्राणी शुद्ध वायु को,
लील रहा अशुद्ध पवन हर आयु को।
नेता हो, प्रणेता हो,गरीब हो या अमीर,
सब खोजते फिर रहे हर जगह समीर।।
जिसे जीवन में दो चार पेड़ लगाने की क्षमता नही,
उसे ही पेड़ पौधों के प्रति जरा भी ममता नहीं।
हर पल दे जो हर सांसों में साथ,
देखो, मानव उस वृक्ष को कैसे रहा काट।।
थोड़ी जगह के लिए मनुष्य हो रहा कितना विकल,
जंगलों में भी दिखता चहुँओर सिर्फ दावानल।
वनों में भी नहीं रही अब पशु पक्षियों की हलचल,
पता नहीं कैसा होगा, सबका आने वाला कल।।
अब भी संभल जाओ,
जीवन में कम से कम चार पेड़ लगाओ।
धरा के आवरण और अपना जीवन बचाओ,
सिलेंडर मुक्त शुद्ध ऑक्सीजन पाओ।।
आओ सब मिलकर वृक्ष लगाएं,
वर्तमान के साथ अपना भविष्य बनाएं।
जंगल में सदा मंगल रहे,
ये धरती अब और कष्ट, न सहे।।
नष्ट हो रहा पेड़ पौधे और पर्यावरण,
दोष दें हम किसको, किसको।
अगर बचाना है दिल से इसको,
एक बार फिर से “चिपको”, फिर से “चिपको”।।
स्वरचित सह मौलिक
पंकज कर्ण
कटिहार