“फिर मिलो”
कभी तुम मिलो तो,
कहें कुछ अपने मन की।
कहां तक संभाले रहे,
जो रह गई थी कहीं,
कभी बीते मिलन में।
जो बातें सुनाएं थे दिल की,
रह गई थी कुछ अधूरी।
ठहरा हुआ है पल वहीं,
जो छोड़ आए थे कभी।
कभी फिर मिलो तो,
कहें कुछ अपने मन की।
चलें फिर से उन्ही राहों पर
पैरों को भंवर से निकाल कर।
चलें साथ सीपियों को चुनने,
वो मन के मोतियों को पिरोनें।
आज फिर मिलो तो,
चलें कुछ सपने सजोने ।
फिर मिलो,फिर मिलो…
© डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”