फिर मन कहता है
फिर मन कहता है बचपन के गलिहारो में टहला जाये
फिर मन कहता है बचपन के मित्रो के संग डोला जाये
फिर मन कहता है दादी की परियों वाली कहानी में खोया जाये
फिर मन कहता है नानी की नर्म गोद में सर रख कर सोया जाये
फिर मन कहता है कैरी , अमरूदों को बागों में खेला जाये
फिर मन कहता है फाग मास में लगने वाला हम मेला जाये
फिर मन कहता है निस्वार्थ सम्बंधो के संग फिर जीवन जिया जाये
फिर मन कहता है जीवन को बचपन के इन्द्र्धनुष सा किया जाये
फिर मन कहता है मित्र के कन्धे पे हाथ डाल कर मीठी बातें हो जाये
फिर मन कहता है मीठें सपनो के संग वाली फिर वो रातें हो जायें
फिर मन कहता हैं यह टेक्नोलॉजी वाला जीवन बहुत हुआ
फिर मन कहता है तकनीकी मे बचपन का मरन बहुत हुआ
फिर मन कहता है वो खेल खिलौने की जीवनी उनमें वापस आ जाये
फिर मन कहता है पेड़ के इर्द गिर्ध वाली बातों में संजीवन वापस आ जाये
फिर मन कहता है अब हर एक बचपन फिर खुशहाल हो जाये
फिर मन कहता है फिर से हर एक बचपन मशाल हो जाये
©️अक्षय दुबे ‘सहज’