फिर भी क्यों सिसकतीं हैं बेटीयाँ ?
दुनियाँ में नाम भी कमातीं हैं बेटीयाँ ।
बेटों से आंगे भी जातीं है बेटियाँ ।
करतीं है तन भी मन भी अर्पण ,
बेटों को जनने जान लगतीं हैं बेटियाँ ।
फिर भी …..
क्यों सिसकतीं हैं बेटियाँ आज भी,
गर्भ के अंधकारों में ?
क्यों नहीं मिलती जगह आज भी ,
कोख के दुलारों में ?
क्यों मारी जाती गर्भ में आज भी,
तीखे औजारों से ?
क्यों मिलतीं हैं सिसकियाँ आज भी ,
माता की आवाजों में ?
.. विवेक दुबे “निश्चल”©…