फिर कहाँ मौका मिले
जी लूँ फिर से बचपने को, फिर कहाँ मौका मिले।
जिम्मेदारियों का दरिया पार हो, गर कोई नौका मिले।
वो पड़ गया है भ्रम में अब ,न दिन का होश न रात की।
कहता है सोया था जब ,किसी ने आके मुझसे बात की।
अपनो की इस भीड़ में ,कदम कदम धोखा मिले।
जी लूँ फिर से बचपने को, फिर कहाँ मौका मिले।
जिंदगी बस कट रही है ,जिम्मेदारियों का खयाल लेकर।
बचपने से कोसो दूर और अनगिनत जंजाल लेकर।
काश के इस जिंदगी में यादों का झोका मिले।
जी लूँ फिर से बचपने को, फिर कहाँ मौका मिले।
-सिद्धार्थ पाण्डेय