फितरत
फितरत है इन्सान की बस इन्सान को बाटता है!
कभी धर्म -जाति,औ भाषा के नाम पर बाटता है!!
पीपल,बरगद हौ या हो दरख्त किसी नीम का-
अपने ही स्वार्थ के लिए इसी की टहनी काटता है!!
नतीजा आज है हमारे सामने जब बाढ आती है,
बहुमंजिली इमारतो,सडको के नाम पेड काटता है!!
कब स्वार्थ और विकास की रुकेगी यह बयार?
कयो मतलब के लिए गए गुजरो के पैर चाटता है?
सर्वाधिकार सुरछित मौलिक रचना
बोधिसत्व कस्तूरिया एडवोकेट,कवि,पत्रकार
202 नीरव निकुज,सिकन्दरा,आगरा -282007