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1 Jul 2023 · 1 min read

फितरत

मुश्किल है पहचानना,
जिसे फितरत कहते हैं।

दुनिया यह वो है हुजूर,
जहाँ भेड़ की खाल में,
छुपकर भेड़िये रहते हैं।

और – जो गलती से,
पहचान ही गये इनको,
पहचान इनकी कायम,
न हरगिज रख पाओगे।

रंग-रूप भी बदल लेते,
हैं ये गिरगिट की तरह,
बार-बार धोखा खाओगे।

बात न होती है खत्म,
बस यह इतने ही पर,
साँप को दूध पिलाकर,
हर कदम डसे जाओगे।

अद्भुत है दुनिया यह,
किसे-किसे, कब-कब,
समझाओगे, मनाओगे?

दौर निकल पड़ा है,
दगा, चालबाजी का,
सँभाल लो खुद को,
बेमौत मारे जाओगे।

रचनाकार – कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक – ०१/०७/२०२३.

5 Likes · 2 Comments · 347 Views
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