फितरत मेरी
फितरत मेरी बदल दी वक्त ने
क्या बचपन के दिन थे मेरे,
बेफिक्र, अल्हड़-मिजाज मैं,
धमा-चौकड़ी शाम-सवेरे,
न चिंता आगे जीवन की,
कर लूंँ वक्त को कब्जे में,
गई न फितरत बालपन की
मृग-मरीचिका के घेरे में,
आई जिम्मेवारी कन्धों पर
दो-चार हुआ जीवन से,
किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ मैं
जब खड़ा दोराहे पर अकेले,
कमर बांँध अब करूंँ परिश्रम,
भागम-भाग लगा जीवन में,
पल-भर भी आराम नहीं अब,
फितरत मेरी बदल दी वक्त ने।
मौलिक व स्वरचित
डा.श्री रमण ‘श्रीपद्’
बेगूसराय (बिहार)