फितरत कभी न बदला करती
फितरत कभी न बदला करती, नर हो अथवा नारी
चोरी भले न करे चोर पर, करता लउकाटारी
सन्त सन्तई नहीं त्यागते, परहित में रत रहते
कभी किसी को सपने में भी, वे कटु वचन न कहते
अपनी फितरत के कारण ही, कोयल मीठा गाती
अपने अण्डे कुटिल काक के, कोटर में रख आती
फितरत के कारण ही कुत्ते, की दुम टेढ़ी रहती
बिल्ली चूहों की तलाश में, आठो याम भटकती
फितरत के कारण चमगादड़, उल्टा लटका रहता
चाबुक की ताड़ना निरन्तर, अश्व पालतू सहता
फितरत के कारण ही हाथी, मांसाहार न करता
और मृगेन्द्र मांस खाकर ही, उदर स्वयं का भरता
फितरत के कारण ही जब-तब, ज्वार सिन्धु में आता
सूरज कभी निकट पृथ्वी के, कभी दूर हो जाता
घटता-बढ़ता चाॅंद फितरती, कभी नदारद होता
वशीभूत होकर फितरत के, मानव हॅंसता-रोता
जलचर थलचर नभचर सबकी, भिन्न-भिन्न फितरत है
सचर-अचर की चिर गतिमयता, कहलाती कुदरत है
कुदरत अनुक्षण कर्मनिरत है, कर्मनिरत हर प्राणी
कुदरत की अनुचरी अहर्निश, यह वसुधा कल्याणी
महेश चन्द्र त्रिपाठी
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