फागुन
फागुन
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बीता पूस माघ, अब फाल्गुन आयेगा;
अब बसंती कोयल, नित खूब गाएगा।
हवा में रंग उड़ेंगे, खूब गुलाल बिखरेंगे;
हर तन-मन को ही , ये फागुन भाएगा।
ये मौसम सुहाना, हवा से दवा मिलेगी;
जो प्रातः जागेगा,उसे सूर्यदया मिलेगी।
जले होलिका रूपी बुराई, लगी आग में;
मग्न दिखते हैं सभी,अब फगुआ राग में।
खेत लहलहाए , कुसुमित सरसों पीली;
बाग बगीचों में, खिलते पुष्प रंग-रंगीली।
आम्र वन में भी अब , खूब महके मंजर;
मन में मोर नाचे,प्रकृति का चहके मंजर।
रंगीली मास में रंग लगा, सब बने जोकर;
मिलते हैं सब अपने,निज दुश्मनी खोकर।
कोई नाचे कोई गाए , सब खुशी मनाए;
इसी फगुआ में, महादेव की बरात आए।
बाजार सजे अब, रंग और पिचकारी से;
हुरदंग मचे , रंगबाजो के किलकारी से।
होली है, होली है, फागुन में ये सब गाए;
मिल जुल कर,पूरा देश ही होली मनाए।
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स्वरचित सह मौलिक;
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©/® पंकज कर्ण
कटिहार(बिहार)।