फ़ितरत को ज़माने की, ये क्या हो गया है
फ़ितरत को ज़माने की, ये क्या हो गया है
भाई अपने भाई से, जुदा हो गया है |
रिश्तों की मर्यादा ने , सीमाएं लांघ दी हैं
इंसानियत का जज़्बा , लहुलुहान हो गया है |
आधुनिकता की अंधी दौड़ में , इंसान गुम हो गया है
सुविधाओं के बवंडर में , मानव कहीं लोप हो गया है |
जीवन अजीब सी दौड़ का , पर्याय हो गया है
धर्म पर राजनीति का , कब्ज़ा हो गया है |
राष्ट्र के प्रति समर्पण , दिखावा हो गया है
राष्ट्र के सपूतों का निरादर , आम हो गया है |
नेताओं की कुटिल चालों से घायल , आमजन हो गया है
झूठ का बोलबाला , सत्य कहीं वीराने में खो गया है |
आँखों में शर्म का , अभाव हो गया है
संस्कार स्वयं के अस्तित्व पर , रो रहा है |
फ़ितरत को ज़माने की, ये क्या हो गया है
भाई अपने भाई से, जुदा हो गया है |
अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”