फर्क
होती नहीं इस जहाँ में दोस्तों!
इंसानों की एक सी फितरत ।
दिखाई देता है जो रूबरू आपको ,
मगर कुछ और ही है हकीक़त ।
कुदरत है हैरान और खुदा भी ,
कहाँ है छुपी इसकी असलियत ।
उसने तो बनाया सबको एक सा ,
और एक सी भरी दिलों में मुहोबत।
मुहोबत की तो बात ही छोड़ो दो ,
बची कहाँ रह गयी है इन्सानियत ।
रूह एक थी मिटटी भी एक थी ,
फिर क्यों बदल गयी इसकी सीरत ?
उसने तो नहीं बनाये थे दरो-दिवार ,
फिर कहाँ से आई तकसीम की आदत?
यह वोह इंसान ही नहीं जाने कौन है ?
बदली इस दौर में इंसा की शख्सियत।