फरिश्ता आए
नहीं है ज़रूरत की बचाने कोई अब फरिश्ता आए
तीरगी मिटाने चराग़ दिल का मेरी राह में जला आए
हमको आदत पड़ गई है यहाँ यूँ टूट फुट कर जीने में
अब फ़र्क नहीं पड़ता राह में सुनामी या तेज हवा आए
यहाँ हम अपनी मौत का मातम भी हक से करेंगे यारा
चाहे रोकने टोकने समाज या पूरा का पूरा काफिला आए
इक तो लाल लाल साड़ी उसपे ज़ुल्फ़-ए-परेशान उसके
हम करते भी क्या सो एक रात में पूरी जवानी लुटा आए
बहुत दिन हो गए है इश्क में कोई दार तक पहुँचा नहीं
खुदा करें मुझे ये रोग लगे तो बदन नहीं आशियाना आए
सबकी किस्मत में सजे रंग बिरंगे गुलाब के बाग़ म’गर
जब बारी हमारी आई तो रंज ,अश्क ,ओ क़ज़ा आए
ज़रा सा आह तक न कर पाया दर्द में तड़प कर भी मैं
देख यूँ माँ पापा को आँसू यहीं ग़ज़ल में फिर छुपा आए
@कुनु