*फंदा-बूँद शब्द है, अर्थ है सागर*
छोटी थी जब
स्वेटर बुनते माँ ने टोका था मुझको-
‘सारा स्वेटर उधड़ न जाये
ध्यान तो दे कहीं गिर न जाये
बुनते-बुनते ही यह फंदा‘
छोटी-सी बुद्धि ने तब से
फंदा स्वेटर में ही जाना|
और टोकती थी माँ अक्सर-
‘धीरे-धीरे खाया कर|
छोटे-छोटे ग्रास बनाकर
ख़ुद भी कभी खिलाती थी,
‘पानी भोजन बीच न पीना,
लग जाएगा गले में फंदा‘
कह-कह कर ध्यान दिलाती थी|
बदल गए संदर्भ सभी
अब सहज समझ न आता है-
क्यों अन्नदाता भारत का
फंदे को अपनाता है,
क्यों बिलखते बच्चे भूखे?
क्यों बिन ब्याही बेटी छोड़
जीवन से हार जाता है?
अचरज बहुत होता है जब-
बिटिया जो जान से प्यारी है,
बेटा जो आँख का तारा है,
जाने क्यों तब
बन जाता है गले का हार ये फंदा
खाप छीन लेती है क्यों
झूठी इज्ज़त की ख़ातिर बच्चों से ही उनका प्यार?
फंदा-फंदा कह कर
अब तो बच्चे शादी नहीं रचाते हैं,
रख परम्पराओं को ताक पर
जाने कितने लड़का-लड़की
बिन ब्याहे ही रह जाते हैं|
शादी लगती गले का फंदा,
बिन शादी रास रचाते हैं|
बूँद शब्द है, अर्थ है सागर
जाकी जैसी बुद्धि ठहरी
वैसा ही तो बाँचे है|
फंदा क्यों समझे हम इसको
धैर्य से सब सुलझाते हैं |
जीवन बहे सरिता-सी धार
पथ निष्कंटक, प्रेम-बाहर
फंदा-फंदा स्वेटर बुन ले
बाक़ी सब है व्यर्थ-विकार|