प्रेम
सुनो जरा, सुन रहे हो ना,
एक बात कहनी है,
बहुत सिंपल सी बात है,
प्रेम हो गया है।
पूछोगे; क्यों, कब, किससे, कहाँ…?
कुछ पता नहीं; सच में पता नहीं।
कहोगे; प्रेम ही क्यों…?
प्यार क्यों नहीं…? जवाब है,
प्यार पवित्र हुआ करता था,
सस्ता, छिछोरापन आ गया,
बाजारीकरण हो गया प्यार का।
चंद जुमलों में सिमटा प्यार,
रंगीन कागजों में लिपटे गिफ्ट,
मोबाइलस्, चाकलेटस्, शाॅपिंग,
मंहगे रेस्टोरेंटस्, फाॅस्ट-फूड सा,
चंद वादों, मुलाकातों से गुजरता,
ठहर जाता आकर देह-समर्पण पर।
प्रेम; किया नहीं जाता, हो जाता है,
दोतरफा हो ऐसा भी जरुरी नहीं,
कोई वादा, मुलाकात जरुरी नहीं,
निश्चलता, स्नेह, एहसास, विश्वास लिए,
प्रेम सौन्दर्यपूर्ण, अनंत, उन्मुक्त होता है।
सम्पूर्ण प्रकृति में कहीं, कभी, किसी से भी,
निर्जीव-सजीव, जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे से,
किया नहीं जाता, हो जाता है, बस हो जाता है,
और हो गया है मुझे भी…..।
रचनाकार : कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
ता० : १७/०१/२०२१.