प्रेम से प्रेम तक😍
आज तलाश करूंगी प्रेम और बांध दूंगी उसे एक पालि में फिर देखूंगी इसके तीक्ष्ण प्रचंड प्रहार । हमेशा नेपथ्य से ही देखा और सुना है इसके बारे में लेकिन आज निष्कर्ष तक पहुंच अपनी इस तलब को शीतलता प्रदान करूंगी । यही आश लिए निकल पड़ी में आज घर से । जहां भी कोई मिला उससे एक ही सवाल प्रेम क्या है ?
शाम जब घर लौटी हजारों जवाब आपस में विग्रह कर रहे थें । कवि के लिए उसकी कविताएं , नज़्म , शेर , ग़ज़ल प्रेम है मूर्तिकार , कलाकार के लिए रंग , बच्चे के लिए खिलौने और माली के लिए पेड़ – पौधे , उसका बाग -बगीचा प्रेम है । संगीतकार के लिए गीत , भक्त के लिए भगवान प्रेम है।
यानी जो इंसान जिस कार्य में संलग्न है वह उसके लिए प्रेम है । अब द्वंद यह है कि
” क्या किसी चीज़ किसी साधन से मिल रहे आंनद की अनुभूति प्रेम है ?? ”
“क्या अनभिज्ञ या सम्मोहन की वज़ह से हुए आकर्षण को हम प्रेम की संज्ञा दे सकते हैं? ” लेकिन अगर ऐसा हुआ तो वह क्षणिक कहलाने लगेगा क्योंकि आकर्षण से मोह तो जल्द ही ख़त्म हो जाता है दूरियां बना लेता है व्यक्ति को उबाऊपन लगने लगता है ।
फिर मैं इसे प्रेम कैसे कह दूँ जो धीरे-धीरे ख़त्म होने लगे और जो अनिश्चितता प्रदान करे।
प्रेम के लिए यहां तक कहा गया है कि:-
” कागा सब तन खाइयो , चुन चुन खईयो मांस
दो नैना मत खाइयो , पिया मिलन की आस।”
अर्थात:- मिलन का कोई आग्रह भी नहीं है बस प्रियतम की एक झलक की आस है।
और वहीं लोगों ने यह भी लिखा है कि प्रेम में कोई उम्मीद , आस या लालसा नहीं होती।
इस अनुसार तो प्रेम एक अगाध स्नेह है । लेकिन क्या शरीरिक प्रेम प्रेम नहीं? आज एक मित्र से यह पूछा तो उन्होनें कहा अगर सच्चा नहीं तो फिर दिखावा है । सिर्फ लेन- देन का सौदा है जिसमें सुविधाओं का, साधनों का आदान – प्रदान है।
अगर उनकी बातों पर विचार करें तो जो क्षणिक है अस्थायी है वह प्रेम नहीं है । प्यार किसी से कुछ नहीं मांगता निस्वार्थ भाव से किया जाता है । तो क्या मीरा के प्रेम का उदाहरण सही है ? क्योंकि उनके प्रेम की संदर्भ में लिखा गया है कि उनमें किसी प्रकार की कोई लालसा ही नहीं थी , शरीर की चाहत नहीं यहां तक कि मिलन की आस भी नहीं थी । सब कुछ छोड़ कर निकल पड़ी थी मीरा उसे तलाशने जिसकी सिर्फ़ किवदंतियां ही सुनी थीं। लेकिन एक बात आज अब भी नहीं समझ आई कि जब कोई चाहत कोई लालसा न कोई आस थी मिलन की तो फिर मीरा किस तलाश में घर से निकल पड़ी थीं किस ख़ोज में मीरा दर दर की ठोकरें खाती रहीं ??
मैं किसी के प्रेम पर उंगली नहीं उठा रही ना ही मेरा कोई इरादा है । हाँ लेकिन मैं उंगली उठा रही हूँ मानवीय परिभाषाओं पर जिसने कहा है कि प्रेम में आकर्षण , उम्मीद , आस , चाहत इत्यादि नहीं होती ।
हजारों ऐसे सवालों से घिरी मैं अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँची कि :-
“जहां प्रेम होगा वहां आकर्षण अवश्य होगा क्योंकि आकर्षण से ही समीपता आती है और समीपता से ही स्नेह जन्म लेता है और उसी स्नेह की प्रगाढ़ता को सभी नें प्रेम कहा है।
©अनन्या राय पराशर