प्रेम-रस
अरे ओए, तुम इस कदर खामोश क्यों हो? ये धरती, ये आकाश और ये समन्दर भी शान्त है, ऊपर से तुम भी। हम दो ही तो हैं, फिर इतनी रुसवाई क्यों?
यह सुनकर सन्ध्या हौले से मुस्कुरा दी। मानों मौन में ही आनन्द है और वह उसमें सराबोर डूबी ही रहना चाहती है।
भास्कर बोला- तुम्हें पता है मैं शादी के नाम से डरता था, लेकिन माँ ने तुम्हारी तस्वीर मेरी किताब पर रखी तो बस देखता ही रह गया। तुमसे कब प्रेम हुआ, पता ही न चला।
इस बार सन्ध्या बोली- डरने वाले को सन्यासी ही रहना था, फिर क्यों कर ली शादी तुमने?
भास्कर मुस्कुराते हुए जवाब दिया- नसीब में लिखा था तेरा नाम शायद,,,, मैं तुम्हें देख रहा हूँ, शादी के 35 वसन्त गुजर जाने के बाद भी तुम वैसी ही हो,,, खूबसूरत, हसीन, दिलकश,,, और शान्त भी।
सूरज डूब रहा था। सन्ध्या अपना मायाजाल फैलाने लगी थी,,, फिर अकस्मात समन्दर की लहरों ने भिगो दिया था,,, उन दोनों को अन्दर तक।
(मेरा सप्तम लघुकथा संग्रह : ‘दहलीज़’ से,,,)
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
डॉ बी.आर.अम्बेडकर
नेशनल फैलोशिप अवार्ड प्राप्त।