प्रेम-प्रभाव:- मोहित मिश्रा
मेरे प्यार,
मजबूर हूँ मैं!
शब्दों के संसार के अलावा
कुछ भी तो नहीं है
देने के लिए मेरे पास।
कुछ भी नहीं, सच में!
क्योंकि तुमसे मिलने के बाद
मेरा कुछ भी
मेरा रहा ही कहाँ?
तुम मिले,
और झंकृत कर दिया
हृदय का तार-तार।
मुस्कुरा उठा अंतर्मन।
अकेलेपन ने संगीत पाया,
जीवन का नया गीत पाया,
मन ने मनमीत पाया,
बंजर-ऊसर अंत:स्थल में
स्नेह-सिंचित होकर
ख़ुशियों की फ़सल
लहलहा उठी।
प्रिये,
तुम्हारे आने से पहले,
खुरदरी और रसहीन थी
मेरी कल्पनाओं की अभिलाषाएँ।
मेरे उजाड़ सपनों में
संवेदनहीन भौतिकता का
गुंजार शामिल था।
हाँ सच है,
सच है कि मैं
एक सूखी बावड़ी था।
जिसकी तलहट की दरारों में
उसका हृदय-विदारक इतिहास
करुण चित्कार से रोकर
मौन होकर सो गया था।
केवल सूखे आँसुओं की-
लकीर जैसी
दरारों के निशान बाक़ी थे।
मेरा मन,
सूखी नदी के अवशेष पर
बिलबिलाते रेगिस्तान जैसा था।
जिसके अतीत-खण्डों में
लहलहाती फ़सल के
स्मृति-चिन्ह विद्यमान थे।
जहाँ से होकर
कभी पानी बहता था।
कभी जीवन रहता था-
जिसके निर्मल-मनहर आँगन में।
सच है कि,
एक लम्बी सतत उदासी
पैठ गयी थी
अंतर्मन की गहराइयों तक।
और उसी को
समझ लिया था जीवन मैंने।
अपने एकाकीपन पर
बेपरवाह घुमक्कड़ी का पर्दा डाल
उस उदास शून्य को
नज़रंदाज कर रहा था मैं।
वक़्त और संसाधन
देखते-देखते मनुष्य को
इच्छाओं का गला घोंटकर
ख़ुश होना सिखा देते हैं।
जब,
मेरी सुरम्यता,
मेरी कोमलता,
मेरी रसात्मक अभिवृत्तियाँ,
समय की चोट से
रक्तरंजित और आहत होकर
गम्भीरता के कठोर आवरण में
शरणस्थली खोज रहीं थी…….
तभी तुम आए,
तुम आए! कि जैसे-
रात की नीरवता में
महक उठी हो रातरानी।
कि जैसे-
प्यास से सूखते गले को
मिल गया दो घूँट पानी।
कि जैसे-
माँ का स्पर्श पाकर
मुस्कान स्वयं ही खिल जाती है।
कि जैसे-
रोते हुए अबोध शिशु को
मनचाही चीज़ मिल जाती है।
उसी तरह!
उसी तरह,
तुम्हारा आना
मेरी निरसता में
उमंग का संचार कर गया।
तुमने आकर,
अपनी प्रेम सुधा से
मेरी मूर्च्छित अभिलाषाओं को
नवजीवन का आशीर्वाद दे डाला।
जलमग्न कर दिया
फिर से सूखी बावड़ी को।
नदी का रेतीला कछार
हरियाली से ऐसा मस्त हुआ
जैसा पहले कभी न था।
प्रिये,
तुम्हारी मदभरी अँगड़ाईयाँ,
मेरी रसात्मक अभिवृत्तियों को
उन्मादित उत्साह देने लगीं।
तुम्हारी कोमलता
मेरी कोमल कल्पनाओं को
आह्लाद का आकाश देने लगीं।
तुम्हारे स्पर्श की अनुभूति
मेरी संवेदनाओं को
आध्यात्मिक रूप देने लगीं।
मैंने प्रेमतत्व के महत्व को
तुम्हारी अनुकंपा से पहचाना।
ईश्वर का साक्षात्कार होना
शायद
प्रेम के
साक्षात्कार होने जैसा ही होता होगा।
ज़रा सोचो,
इतना कुछ दिया तुमने,
तो दाता कौन हुआ?
मैं तो याचक हूँ, बस।
इसीलिए कहा-
मजबूर हूँ मैं,
हृदय के उद्गार के अलावा
कुछ भी तो नहीं है
देने के लिए मेरे पास।
शब्दों के संसार के अलावा
कुछ भी तो नहीं है
देने के लिए मेरे पास।