प्रेम की उलझन
मन के गुलिस्ताँ में
क्यूँ हरदम खलिश सी होती है,
चुम्बिस है सर्द हवाओं में
फिर भी सासों में तपिश सी होती है।
अक्स तेरी मेरी आंखों के आइने में
फिर क्यूँ तुझे देखने की ख्वाहिश सी होती है,
हरदम चलती है तू ही मेरे जहन में
देखा हूं जबसे तुम्हे धड़कन में कशिश सी होती है।
झटक बालों को जब बांधती हो जुड़े में
दिवा के बादलों में भी क्यूँ रंजिश सी होती है,
मिले हो जबसे तुम बंधे हैं अक्स में तेरे
तन्हा वहां भी होते हैं जहां मजलिश सी होती है।
तेरा आशियां बनाया है मैने अपने नैनों में
फिर जमाने के लोगों में क्यूँ मुफलिस सी होती है।
बसी हो जब से तुम मेरी धड़कन में
फिजाओं में तुझे पाने की क्यूँ गुजारिश सी होती है।
शामिल हो तुम हरदम बिहारी की पूजा में
तुझे रब से मांगने की खातिर हरपल अरदास सी होती है,
शामिल हो तुम मेरी सांसो की दुआओं में
पल-छिन की जुदाई भी अब क्यूँ बरस सी होती है।
******* सत्येन्द्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी) *******