प्रेम का रोग बड़े अजीब
रोशनी हो ना सकी, दिल भी जलाया मैंने,
तुमको भुला न पाया, लाख भुलाया मैंने।
ये कैसा ग़ज़ब का जादू, कोई समझ न पाए,
दिल माना ही नहीं, लाख मनाया मैंने।
कौन सी सियाही चलाई, वो रब ही जाने,
मिट ना सकी लकीरें, लाख मिटाया मैंने।
है ये कैसी प्यास, जो अन्तहीन सी लगती,
बुझ ना सकी कभी, लाख बुझाया मैंने।
है ये ग़ज़ब के शोले, हर पल दिखे दहकते,
शान्त हुए कभी ना, लाख सुलाया मैंने।
प्रेम का रोग बड़े अजीब, कुछ समझ न आते,
ये आवारा मन न माना, लाख समझाया मैंने।
– डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति