प्रेम का आँगन
प्रेम का आँगन
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तल्खियां नफरत भिंगोकर,
स्वार्थ का संसार रचते ।
हसरतें मोहित भंवर को ,
प्रेम का आंँगन समझते।
पीठ में खंजर चुभोकर ,
दहशतों का मंजर बनाते ।
घाव हर दिल में लगाकर ,
भाग्य का सिकंदर कहलाते।
प्रेम का आँगन अनंत है ,
अपरिमित व्योम के व्यास जैसा।
नाप सका न कोई अब तक ,
भरत-प्रेम-मिलाप जैसा ।
प्रेम अलौकिक दिव्य अनुभूति,
मीरा के निश्छल भजन सा ।
अज्ञानियों के लिए रहस्य बनता ,
गोपियां श्रीकृष्ण महारास जैसा ।
प्रेम तप है प्रेम पूजा,
निष्काम प्रेम करे रैदासा।
प्रेम यदि प्रभु रम गया तो ,
कठौती में गंगा प्रकटसा।
झूठे प्रेम दिखावे में दूनियां ,
महफ़िल-महफ़िल खाक छाने।
जाम मद अधरों लगाकर ,
प्रेम से नित्य दूर जावे ।
कलुषित मानव मन क्या समझे ,
प्रेम की अपार क्षमता ।
प्रेम गर दिल बस गया तो ,
स्वार्थ का संसार त्यजता ।
ग़फलतों में मत रहो अब ,
दिखता जो वो,मन का आँगन।
सकल हृदय विस्तार ही है ,
हकीकतों में प्रेम आँगन।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०९ /११ /२०२१
मोबाइल न. – 8757227201