प्रेम ( कविता )
प्रेम
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इक भँवरा जो प्रतिदिन ही
उपवन मे जाया करता था
रंब बिरंगे फूलों पर मोहित
वह मंडराया करता था ।
फूलों को भी भ्ँवरे का
यूँ मँडराना भाता था
गर जो न दिखता भँवरा
उनका जी घबराता था
,यूँ तो उपवन तरह तरह के
सुमनों से महका करता था
लेकिन भ्ँवरे की नजरों मे
इक गुलाब ही रहता था
वह गुलाब भी भँवरे की
गुनगुन पर ही मरता था
यूँ कि वह आकर कानों मे
धीरे से कुछ कहता था
जाने क्या दोनो रोजाना
चुप चुप बातें करते थे
शायद दर्दे दिल का अपने
हाल सुनाया करते थे
यूँ ही मिलते जुलते उनको
इक दूजे से प्यार हुआ
फिर जैसा कि होता आया
वही पुनः इक बार हुआ
तोड़ा था जालिम हाथों ने
फूल शाख से दूर हुआ
जब देखा भँवरे ने उसका
दिल तो चकनाचूर हुआ
इसी वियोग की पीड़ा से
श्रंगार बना फिर जीवन में
यही प्रेम है शाश्वत जिससे
जग सारा गुलजार हुआ
“गीत” तुम्हारे जीने का अब
मात्र प्रेम आधार हुआ।।
गीतेश दुबे ” गीत “