प्रिय सुनो!
दग्ध अन्तर में व्यथाएँ टूटतीं मृदु कामनाएँ
दीप की प्रज्ज्वलित लौ सा रक्त प्राण जला रहा हूँ
प्रिय सुनो! मैं जा रहा हूँ
शक्ति क्या है भक्ति क्या है
प्रेम की अनुरक्ति क्या है
भावना का पाश कैसा
कर्म में आसक्ति क्या है
ज्ञान-पथ को दृष्टि में रख स्वयं को समझा रहा हूँ
प्रिय सुनो! मैं जा रहा हूँ
रूप के इस जाल में
यह मन कभी उलझा न पाया
प्रेम का प्रतिदान मैं
तुमको कभी लौटा न पाया
तोड़ कर बन्धन जगत के मुक्ति-मार्ग सजा रहा हूँ
प्रिय सुनो! मैं जा रहा हूँ
शूल के विष-बेल को
अब अंक में भरना कठिन है
वेदना के त्रास में
प्रत्येक क्षण मरना कठिन है
मान या अपमान हो उर से ‘असीम’ लगा रहा हूँ
प्रिय सुनो! मैं जा रहा हूँ
✍️ शैलेन्द्र ‘असीम’
(चित्र : साभार)