प्रात का निर्मल पहर है
-“प्रात का निर्मल पहर है”-
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प्रात का निर्मल पहर है…
दूर क्षितिज में सूरज निकला,
कण-कण विहँस रहा है पुलकित।
कैसी सुंदर घटा मनोहर,
कोलाहल से दूर जिंदगी।
अंधियारे को दूर भगाकर,
शांत डगर है, शांत शहर है।
प्रात का निर्मल पहर है…
हल्की-हल्की प्रभा है बिखरी,
तृण -तृण पर जलबिंदु है निखरी।
निश्चल जल है, शांत सरोवर,
मंद पवन से खिला कुमुद दल।
वणिक चला फिर अपने पथ पर,
कर्म चक्र की गति अटल है
प्रात का निर्मल पहर है…
फुनगी पर इतराती कोयल,
जगो-जगो ये कहे कुहककर।
अभी समय है सोचो कुछ तुम,
सपने संजाओ सबसे हटकर।
चंचल मन की डोर पकड़ लो,
हठ करने का समय नहीं है।
प्रात का निर्मल पहर है…
जब आएगा सूरज ऊपर,
निदाघ प्रचंड किरणों से आहत।
मन के तरुणाई बुझ जाएंगे,
होगी व्यथित निढाल प्रफुल्ल तन।
इसका भी तुझे खबर नहीं है।
प्रात का निर्मल पहर है…
फिर आएगी सायं बेला,
पश्चिम में रवि अस्ताचल।
सारे दिन जब ढल जाएंगे,
वक़्त का पहिया पंख लगाकर।
ऐसे में विश्रांति कहाँ है।
प्रात का निर्मल पहर है…
मौलिक एवं स्वरचित
© *मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
मोबाइल न. – 8757227201