प्रात:काल ( कविता )
~~ प्रातः काल (कविता) ~~
समय का आ रहा अकाल,
चल उठ जा प्रातः काल |
(1)
एक दिन सहसा आंख मुंदी थी,
स्वप्नों की कुछ शाख लदी थी,
सुकून से मेरी आहें बही थी,
हृदय में एकदम सांस भरी थी |
इतने में एक बैरी आया,
चढ़ी आंख से मुझे जगाया,
सिरहाने क्रोधी हाथ लगाया,
रजाई को पवन तक पहुंचाया |
मुझे उबासी पकड़ रखे थीं,
आंख उनींदी मेरी पड़ीं थी,
भ्रम-हकीकत उलझन अड़ी थी,
सोने की एक आस जगी थी |
तभी अचानक उसने झकझोरा,
तात होने का रौब निचोड़ा,
फैला सीना,आलसपन खोलें,
कटु वचन से वह झट बोले |
संपत्ति का तिनके भर हो ख्याल,
तो चल उठ जा प्रातः काल || 1 ||
( 2 )
मैं बोला ‘जकड़े है निद्रा’,
काहे सर लाते हो दुविधा,
वह गुस्से में भरे हुए थे,
रक्तताभ-सी आंखें धरे हुए थे |
हाथ उठाकर जब फटकारा,
मानों ह्रदय में तीर दे मारा,
“क्षण-क्षण में यह समाज पुकारें,
क्यों ना उठ जावे, सकारें ?”
ग्लानी का ज्यौं पहाड़ चढ़ाया,
पड़ोस का श्रवण मन को आया,
आदर में कुछ कह ना पाया,
बिस्तर से जो वियोग ले आया |
हुई पराजय आखिर मेरी,
बिस्तर से जों नजरें फेरी,
चौचले-समाज, विध्वंस हो ये तेरा,
इस यह कथन भी सुन ले मेरा |
“हो बाढ़ तूफान या कोई मायाजाल,
नयन खोल ही मानूंगा, अब तो प्रातः काल |” || 2 ||
( 3 )
ना रहा कोई झगड़े का मेला,
ना ही सुख से एक खेल, खेला,
ना भेद अब, साफ या मैला,
तुरत निकले यह शहरी झमेला |
मस्तक फिर-फिर, निशा ये जागी,
तब भी यह नींद ना लागी,
क्या मैं इतना बड़ा अभागी ?
शब्दावली से, नींद ये लागी |
आंख खुली, पर घना अंधेरा,
ब्रह्म मुहूर्त का लगा था डेरा,
मार लूं और नींद का फेरा,
चित्त झट से यह बोला मेरा |
स्वप्न टूटा, कि सूर्य अनजाना,
उठने का तब साहस जाना,
घनी धूप का ना रहा ठिकाना,
क्यों मैंने सोने का ठाना ?
बैरी बोला, “ऐसे ही निकला यह साल,
लो, हो गया प्रातः काल | || 3 ||
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– Vikash Pachouri
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