प्राकृतिक छटा
ये चांद,तारे,सूर्य ।
आसमाँ ये बादल घटा ।
कण-कण में अपना रंग बिखेरे ।
धरती को घेरे ये प्राकृतिक छटा ।
ब्रह्म मुहूर्त मलयावात् ।
शीतल,मंद-मंद चलती हंवाए ।
आसमाँ में इन्द्रधनुष सात रंगो में निखरे ।
देखते ही बनती है चंद्रमा की सोलहो कलाएं ।
रात अंधेरी अमावस की ।
भयानक रूप उस दृश्य की ।
रजत किरणो को बिखेरते आती जब पूर्णिमा ।
श्वेत,ओज सी खिलती कुमुदिनियो की पंखुड़ियाँ ।
तितली, भौरे उस पर मंडराएं ।
गुंजायमान हो मस्ती मे गीत गाए।
पर्वतो से निकलते ।
दिखते प्रभाकर ।
स्वर्णिम किरणे ।
पङती धरा पर।
ऐसे ही सृष्टि पर्वत दृष्टि बनाए रखिए करूणाकर ।
समंदर,आसमाँ ये नीला ।
सूर्यमुखी पीली ।
धरती पर है छाई हरियाली ।
टिड्डी फसलो को खाकर कर देते फिसड्डी ।
प्रकृति का रूख बङा है जिद्दी ।
रंक बना दे राजा को ।
खत्म कर उसकी सारी निधि ।
प्रकृति ने दी मानव को सबसे ज्यादा बुद्धि ।
प्रकृति को न तुम छेङो ।
आंख दिखाती है वो सीधी ।
आपदा,विपदा,महामारियो सी बनकर कर देती सपनो का सब मिट्टी पलीदी ।
खेतो में खिलते सरसो के पीले फूल ।
अंगारो सा दिखता रंग पलाश फूल मूल ।
प्रकृति हर पल एक नई खिलाती रहती है गूल ।
मांग लो माफी तुरंत होने पर भूल।
हरे पेङ-पौधे, उगती हरीश घास ।
मौसम हो भीगा तो फिर क्या हो बात ।
मनोरम -सी दिखती ये पुरी कायनात ।
बादल ये दिखता जैसे उङ रहा रूई ।
संवेदनशील, रोमांचकारी सी दिखती है, घास छुई-मुई ।
हरियाली ही है प्रकृति की खोल ।
बिना उसके सूना पूरा भूडोल ।
इंसान के बस है कर्म का मोल ।
जिससे है वो पाप-पुण्य घोल ।
मरने पर चले जाते है बोल ।
आत्मा ही है अजर-अमर ।
बाकी सब मोह-माया कल्पित -कपोल ।
जीवन में बस वही आगे बढा ।
जो रहा अपने लक्ष्य पर डंटा ।
भले ही चुभते रहे पैरो मे काटा ।
चलने वाला मंजिल की तरफ जाता है चला ।
उसको खबर ही नही रहती कब सूर्य निकला और कब ढला ।
मस्तिष्क का जितना करो प्रयोग।
उतना ही आगे बढ़ते जाओगे ।
रहे गए वे विवेकशून्य जिन्होने केवल बस रटा ।
प्रकृति बदलती हर पल अपनी छटा ।
*
☆ ☆RJ Anand Prajapati ☆☆*