प्रदूषण
संगे मरमर का गढ़ा
प्रेम का प्रतीक मैं
चन्द्रमाँ का बनके दर्पण
एक महल के रूप में
मुद्दतों से मैं खड़ा हूँ
एक नदी के छोर पर
सिसकियाँ भरता हुआ
काटता हूँ रात-दिन।।
खण्डहर बनता हुआ
ये पूछता है मेरा मन
कब तलक छुपकर रहेगा
ये तुम्हारा बुढ़ापन
कब तलक भरते रहोगे
रात दिन ये सिसकियाँ
कब तलक आख़िर छुपेंगी
ये तुम्हारी झुर्रियाँ।।
कब तलक ज़िदा रहोगे
ऐसे प्रदूषण में तुम
देखना हो जाओगे फिर
एक दिन नक़्शे से गुम
जल्द ही ऐ ताज तेरा
वह भी दिन आने को है
टुकड़े टुकड़े होके तू
बेवक़्त ढह जाने को है।।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”