प्रतीक
कण कण में ज़िसका वास
फिर क्यूँ उसका एक निवास
ये प्रतीक बस नाम मात्र है
हर हृदय में करे जो निवास
क्या वो कोई मलमल का लठ्ठ
जिस पर लग जाएगा दाग
मानव ज़िसकी अमोल कृति
क्या करेगा वो उनमें ही भेद
ये धर्म के रक्षक क्या जाने
लेकर हृदय में इतने शूल
जो होते लोगों मे भी प्रकार
वो करता उनपे ही प्रहार
जो मानव रुप में आएं हैं
और मानवता ही खाए हैं
ये बेच चुके अपनी अंतरअात्मा
बस नफरत ही फैलाए हैं
मन्दिर को ये बना के धन्धा
लोगों का चन्दा खाए हैं
स्वर्णों के पैर पखारें ये
दलितों पर लठ्ठ बरसाएं हैं