प्रतीक्षा के द्वार पर
प्रतीक्षा के द्वार पर
अपलक नयन से
सजग हो खडे रहकर
कितने रात दिन टांके हैं ।
कितनी अभीप्साओं
को समझा शान्त किया ।
कभी थके कभी हारे
धर धीर पर स्थिर रहे
वर्षों से अनवरत यूँ ही
प्रयास इस प्रतीक्षा में हैं
कि एक दिन कभी तो
मेरे इस द्वार पर भी
सौभाग्य आ विराजेगा ।
और जब वो आएगा
बस उसी के संग हो
जीवन सौन्दर्य की उस
हाट पर मैं जाऊंगी ।
निधियाँ जो भी तृप्ति की,
प्रेम की, उल्लास की ।
ला उन्हें अति प्यार से
जीवन सुभग सजाऊंगी ।
किन्तु मेरी चाह ये सब
आज भी है बस प्रतीक्षित ।
काल की गति में लिपट
सांसें ये घटती जा रही
लम्बी प्रतीक्षा में खड़े हो
पांव भी थककर चूर है ।
हौंसलों का जो दिया
जलता रहा नित साथ में ।
आज उसकी रोशनी भी
बहुत मद्धिम हो चली है ।
धैर्य भी अब सब्र की
सीमा में घटता आ रहा ।
जीवन के दस्तावेजों पर
मन ये हार स्वीकार रहा ।
शायद वो समझ चुका
सीपी में कुछ मोती
अनगढ़ भी होते है ।
जिनके हिस्से में
कभी माला नहीं आती ।