प्रतिबंधित बेटियाँ
मेरी कलम से…
कितनी प्रतिबंधित होती है
बेटियाँ
जन्म से ही
परम्पराओं का आवरण
पहना कर
कितनी आसानी से
छली जाती है
पूरी उम्र
अपरिमेय रिश्तों को
एकत्र करने में
ना जाने कितने भागो में
बाँटती है
खुद को
कभी बेटी
कभी बहन
कभी पत्नी
कभी बहू
फिर माँ बनकर
अपने ही देह से
जन्म देती है
अपनी ही छवि को
एक नये रिश्ते का
उद्गम करती है
और हो जाती है
एकात्म संपूर्ण नारी
एक जीवन के जितने रूप
उतनी ही जिम्मेदारियाँ
ना कम ना ज्यादा
अपने ही मन की ममता
निस्वार्थ त्याग
के कारण
भूल जाती है कि
जीना भी जरूरी है
स्वयं को जिंदा रखने के लिए
इच्छाओं को मारना
और मौन रहना ही
उचित होता है
मृत्यु से पहले कितनी बार
मरती है
तिरस्कृत की घुटन से
प्रत्येक दिन
वो जानती है
प्रेम और कर्तव्य
को निभाने के लिए
खुद को त्यागना ही होगा
भीतर चल रहे युद्ध में
हराना ही होगा स्वयं को
ताकि जीत का परचम
लहरा सके गृह के आंगन में
दर्पण के आगे कहाँ
संवार पाती है स्वयं को
वो तो संवारती है
अपने घर को
रिश्तों को
संस्कारों को
मृषा श्रृंगार के
पीछे
छिपा लेती है
अपनी विषाद मन को
आखों की झील में डूबते
स्वप्न को
हर जगह ठगी हूई
महसूस करती है
फिर भी जी लेती है
क्यों कि जीना भी एक
कर्तव्य है
प्रथा है
उजली हँसी के प्रकाश से
ढ़क लेती है नारी जीवन
की सच्चाई को
और
समझ जाती है
अपने प्रारब्ध को!!!!
©चंदन सोनी