प्रण साधना
प्रण साधना
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सहन करो आघात प्राण को अर्पण कर दो,
बहे नहीं एक बार अश्रु को तर्पण कर दो,
चलो भरो हुंकार भाव को जागृत कर लो,
मरो नहीं सत् बार भला एक बार ही मर लो।
वसुधा के तुम पूत प्रण है लखन सा तुझमें,
मेघनाद सा मर्दन जैसा कौशल तुझमें,
यह अनंत आकाश तेरा गुणगान करेंगे,
शत्रु भी शत् बार देख तुझको ही जलेंगे।
विपदा के सम्मुख निःसहाय ढह मत जाना,
तनहा उर असहाय अश्रु में बह मत जाना,
मनोवेग को साध बढ़ो तुम ढल मत जाना,
बनो चलो पाषाण हिम सम गल मत जाना।
कर उर को पाषाण चलो एक प्रण साधो तुम,
मन में पैठी घोर अनिश्चय को त्यागो तुम,
चलो उठो प्रणवान झोंक दो खुद को रण में,
नाश करो दुर्भाग्य का अपने अब तो क्षण में।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’ (नादान)