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5 Jun 2024 · 5 min read

प्रजा शक्ति

प्रजा शक्ति

युद्ध का नौवाँ दिन समाप्त हो चुका था। समुद्र तट पर दूर तक मशालें ही मशालें दिखाई दे रही थी । आज युद्ध के पश्चात कुछ सैनिक लंका में घुस गए थे, और वहाँ से मदिरा, भोजन, तथा विलास की कुछ अन्य सामग्री लूट लाए थे। अब वह विजय के प्रति निश्चिंत थे, रावण की शक्ति का पिछले नौ दिनों में निरंतर ह्रास हुआ था। आज उनका नियंत्रण छूट गया था, अपने आत्मविश्वास और राम के नेतृत्व में उन्होंने वह पा लिया था , जिसकी कल्पना भी कुछ माह पूर्व तक असंभव थी । वह बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे, रावण की न केवल निंदा कर रहे थे, अपितु उसे तुच्छ समझ स्वयं की प्रशंसा में लीन हो रहे थे । राम यह सब दूर से देखकर तड़प उठे , उन्होंने पास खड़े लक्ष्मण से कहा,
“ इतनी निर्लज्जता तब है, जब कि रावण अभी अपने महल में सुरक्षित है, कल जब वह ढह जायेगा, तो ये लोग अभिमान की सभी सीमाओं को तोड़ अराजकता फैलायेंगे ।”

“ युद्ध के पश्चात थकी हारी सेना का व्यवहार प्रायः ऐसा हो जाता है । “ पास खड़े जांबवंत ने कहा ।

“ जानता हूँ । “ राम ने जैसे अपने आप से कहा ।

“ हम युद्ध की तैयारी में इतने व्यस्त रहे कि इस पक्ष की ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया ।” लक्ष्मण ने स्थिति को समझते हुए कहा ।

“ आप सब विश्राम करें ।” राम ने वानरसेना के पास खड़े नेताओं से कहा ।
“ जी ।” सुग्रीव ने कहा ।
“ आप चिंता न करें राम, मैं अभी सेना को विश्राम का आदेश देता हूँ ।” अंगद ने कहा ।

सब चले गए तो राम ने लक्ष्मण से कहा , “ रावण ने अर्थ में, ज्ञान में, विलास में वह पाया , जो संभवतः इतिहास में आज तक किसी ने नहीं पाया, और हमारी सेना उस व्यक्ति का निरादर इस प्रकार कर रही है, मानो वह कोई तुच्छ प्राणी हो।”

“ यह तो होता ही है, विजयी सेना निरंकुश हो उठती है। विजयी राजा भी तो अपनी सीमाओं को भूल, पराजित राज्य के अपमानजनक शर्तों के लिए बाध्य करता है ।”

“ जानता हूँ । “ राम के स्वर में दृढ़ता थी । “ मैं इस विचार को बदल दूँगा । “

राम की आँखें कुछ पल दूर तक फैले अंधकार में खोई रही, फिर उन्होंने शांत स्वर में कहा, “ पहले तो युद्ध होने नहीं चाहिए, युद्ध हमारे भीतर की कुंठाओं की सबसे घातक अभिव्यक्ति है। यह कुछ अर्थों में भाषा की पराजय है, युद्ध का अर्थ यह भी तो है , अब संघर्ष उस सीमा तक पहुँच गया, जहां वार्तालाप अर्थात् भाषा विकल्प नहीं रही , और भाषा ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करती है, भाषा की पराजय मनुष्यत्व की पराजय है ।”

लक्ष्मण मंत्रमुग्ध से राम को देख रहे थे, कितनी ऊर्जा, कितना आत्मविश्वास, कितनी सहजता, कितनी सकारात्मकता थी राम के व्यक्तित्व में ।

“चलो “ राम ने कहा, और लक्ष्मण बिना कोई प्रश्न किये राम के साथ चल दिये ।

अगले दिन प्रातः सेना का उत्साह सूर्य की ऊर्जा को और भी बड़ा रहा था, आज राम की विजय निश्चित थी , एक युग समाप्त होने वाला था। लंका की संपत्ति अब उनकी थी ।

युद्ध आरंभ होने से पूर्व सेना स्वयं ही पंक्तिबद्ध खड़ी हो राम के समक्ष आ गई । राम सदा की तरह मंच पर आ गए , वातावरण राम की जयजयकार के नारों से गूंज उठा, राम ने एक हाथ उठा सबको शांत रहने का संकेत किया और कहना आरंभ किया,

“ आज मुझे एक महान राष्ट्र के महान राजा का वध करना होगा। पिछले नौ दिन एक एक करके उनके सभी शूरवीर मारे गए, मैं राम , उनकी स्मृति को सम्मान पूर्वक प्रणाम करता हूँ । “

राम ने हाथ जोड़े तो वहाँ खडें प्रत्येक व्यक्ति ने हाथ जोड़ दिए । फिर राम ने एक हुंकार लगाई, और सेना जय श्री राम का नारा लगाती युद्ध क्षेत्र की ओर बढ़ गई।

उस तपती दोपहरी में सेनाओं की हलचल थम गई, सभी मंत्रमुग्ध हो राम रावण का युद्ध देखने लगे। दोनों का हथियारों का प्रयोग, शारीरिक बल , मानसिक बल अद्भुत था, ऐसे लग रहा था, मानो सृष्टि का अस्तित्व उस समुद्र तट पर उन दोनों के बीच आ सिमटा हो । फिर विभीषण ने राम के कान में कुछ कहा, और राम के उस शक्तिशाली बाण से रावण कराह उठा, वो वहीं भूमि पर गिर गया । इससे पहले कि राम की सेना जयजयकार के नारे लगाती राम ने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया और लक्ष्मण से कहा,

“ रावण हमारे पिता की पीढ़ी के है, मैं उनकी मृत्यु का कारण बना हूँ, इसलिए मेरा उनके समक्ष जाना उचित नहीं, इसलिए तुम जाओ और हमारी पीढ़ी का अधिकार उनसे विनयपूर्वक माँग लो, उनका ज्ञान और अनुभव हमारे युग की धरोहर है ।

सेना दम साधे खड़ी थी, लक्ष्मण की इस विनम्रता का कारण उनकी समझ से परे था ।

लक्ष्मण लौटे तो राम ने सेना के समक्ष पूछा“ क्या उपदेश था रावण का ?”

रावण ने कहा, “ अभिमान भी किसी भयावह रोग की तरह मनुष्य के भीतर फैलता चला जाता है, और उससे दूर तक देखने की दृष्टि छीन लेता है, वह इतना स्वार्थी हो उठता है कि उसे अपने अस्तित्व के अतिरिक्त कुछ और दिखाई नहीं देता ।”

“ और?” राम ने पूछा

उन्होंने कहा, “ कुछ और , कुछ और, की कामना करते करते मैंने वह भी खो दिया जो मेरे पास था ।”

सेना व्याकुल हो रही थी , किसी ने कहा , राम हमें लंका लूटने की आज्ञा दो ।

“ नहीं । “ राम की आवाज़ हवा को चीरती अंतिम सैनिक तक पहुँच गई ।
“ राम यह हमारा अधिकार है, अब लंका हमारी है। “

“ नहीं , “ राम के स्वर में दृढ़ता थी “ लंका वहाँ के निवासियों की है। प्रजा कभी युद्ध नहीं चाहती। वह चाहती है अपनी संतान का भविष्य, आपमें और रावण की प्रजा में कोई अंतर नहीं है। आपने यह युद्ध किया मनुष्य की खोई गरिमा को फिर से पाने के लिए, उन्होंने किया, अपने राजा से बाध्य होकर, न आप स्वतंत्र थे , न वे स्वतंत्र थे,और यह परतंत्रता तब तक बनी रहेगी, जब तक एक राष्ट्र की प्रजा दूसरे राष्ट्र की प्रजा स्वयं को एक दूसरे से भिन्न समझेगी । समय आ गया है आप सब एक हो जायें और निरंकुश राजाओं को स्वयं की बात सुनने के लिए बाध्य करें । इस विजय को निरंतर हो रहे युद्धों की कड़ी न बनाकर मनुष्य की गरिमा को स्थापित करें । “

जांबवंत ने आगे बढ़कर राम को प्रणाम किया और कहा, “ राम हमें घर लौटने की आज्ञा दें , हमारे खलिहान हमारी प्रतीक्षा कर रहे है। आपके अयोध्या लौटने से पहले पुनः लौट आयेंगे । “

राम ने प्रणाम के उत्तर में लक्ष्मण सहित अपने हाथ जोड़ दिए । सैनिक एक एक कर के दोनों भाइयों को प्रणाम कर घर जाने लगे। राम जाते हुए सैनिकों से कह रहे थे , “ सुखी रहो, स्वतंत्र रहो , शांति से रहो।”

सूर्यास्त हो रहा था, उसकी लालिमा में आशा से भरे लौटते हुए सैनिकों को देखकर राम ने लक्ष्मण से कहा , “ यदि यह जनसमूह जान जाए कि इनमें से प्रत्येक मनुष्य शक्ति का स्त्रोत है तो , युद्ध कभी न हों , मनुष्य जीवन , ऊर्जा से भर उठे ।”

“ ऐसा ही हो भइया, ऐसा ही हो ।” लक्ष्मण ने जाते हुए सूर्य को हाथ जोड़ते हुए कहा ।

——शशि महाजन

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