प्रकृति
प्रकृति
बसाने को अपने नए घराने, कितने आशियाने उजाड़े हैँ
जो बोया था बीज कल, फसल वही अब काट रहे हैँ
प्रकृति के इस भयावह रूप से आज इसीलिए हम कांप रहे हैँ ।
सोते थे शीतल छाव में , बचपन भी खिलखिलाता था
रास आ गई अब क्रत्रिम हवाएं, प्राकृतिक शीतलता को ठुकरा रहे हैँ
प्रकृति के इस भयावह रूप से आज इसीलिए हम कांप रहे हैँ ।
पके हुए डाली के वो फल, फूलों की महक चिड़ियों की कल – कल
अब कहाँ वो स्वाद रह गया, हर निवाले में ज़हर घोल रहे हैँ
प्रकृति के इस भयावह रूप से आज इसीलिए हम कांप रहे हैँ ।
मिट्टी की वो महक सुहानी, कचरे की दुर्गन्ध में बदल गई
पाने को जीवन स्वस्थ अब क्रत्रिम संजीवनी अपना रहे हैँ
प्रकृति के इस भयावह रूप से आज इसीलिए हम कांप रहे हैँ ।
जाने कहाँ गई वो शुद्धता, कुए नदी के मीठे जल
करके गन्दा खुद नदियों को, पवित्रता लौटने का वीणा उठा रहे हैँ
प्रकृति के इस भयावह रूप से आज इसीलिए हम कांप रहे हैँ ।
लगा लेते हैँ अनुमान मौसम का, सुरक्षा खुद की करने को
करके प्रकृति के साथ खिलवाड़, खुद को बुद्धिमान समझ इतरा रहें हैँ
प्रकृति के इस भयावह रूप से आज इसीलिए हम कांप रहे हैँ ।
– रुपाली भारद्वाज