प्रकृति ही महानतम चिकित्सक है,
भ्रम नहीं हैं धरा और प्रकृति,
जीवन है इसकी उत्पत्ति,
लोग व्यर्थ हक धरते हैं,
सब जीवों की प्रकृति हरते है,
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यथा जरूरत तथा चक्र है,
व्यवस्था के नाम पर जवाब है प्रकृति,
कौन शाकाहारी कौन करें मांसाहार,
दांतों का आकार निर्धारित करते है,
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करती है आहार व्यवस्था प्रकृति,
स्तनधारियों के स्तनों में दूध समाया है
करते नहीं निज-कर्म आदमी,
व्यर्थ ही स्वच्छता सामने लाया है,
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मलीनता की हद तो देखो,
जिसको भी छुआ उसको ही सड़ाया है
छुईमुई उंगली देख मुरझाई है,
इंसान शुद्ध साफ़ सात्विक भोजन खाकर भी पवित्र मल-मूत्र नहीं कर पाया है,
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फिर भी प्रकृति ने उसे विवेकशील बनाया है,
उसने फिर भी विडम्बनाओं का जाल स्वयं बिछाया है,
रुग्ण है आज मानवता, क्योंकि उसने
खुद से ज्यादा लिखे पर विश्वास जताया है,
महेंद्र