प्रकृति से हमें जो भी मिला है हमनें पूजा है
प्रकृति से हमें जो भी मिला है
हमने उसकी पूजा की है
कण कण में भगवान को ढूंढा है
हर कण को हमने पूजा है
तिनके तिनके पत्तों से लेकर
धरती और गगन को पूजा है
पंचतत्वों को भी पूजा है
सूर्य और चन्द्रमा को पूजा है
जो भी मिला है हमें
उन सब को हमनें पूजा है
इंसान हो या जानवर हों
सबमें हमनें भगवान को खोजा है
स्त्री मिली पुरूष को तो
पुरुषों ने देवी माना और पूजा है
स्त्री को पुरुष मिला तो स्त्रियों ने
पुरूषों को देवता समझ कर पूजा है
बच्चों में हमनें भगवान को देखा है
गुरुओं को हमनें भगवान समझा है
त्याग तपस्या और समर्पण को हमनें जिया है
प्रकृति की महिमा को सबने जाना है और सबने पूजा है
आडंबर और पाखंड ने हमें कमज़ोर किया है
फिर हमें जमकर लूटा है, आतंकित किया है
अंधविश्वास और अज्ञान ने हमारे मस्तिष्क पर
प्रहार किया है धर्म कर्म को भी अस्वीकार किया है
सत्य को जाना था जबतक
हुआ नहीं था अनर्थ तबतक
अधर्म और असत्य का जब जब साथ दिया है
पतन को स्वयं ही निमंत्रण दिया है
संस्कृतियों की मिलावट से ही
विनाश हुआ है संस्कारों का
पतन हुआ है सभ्य सुसंस्कृत सभ्यता का
अखंड भारत भी खण्डित हुआ है टुकड़ों में बटा है
पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति ने भी हमें ठगा है
जमकर प्रहार किया है, विचार अभिव्यक्ति को
आडंबर और पाखंड को हथियार बना कर
संस्कारों को अस्वीकार किया है
पाश्चत्य संस्कृतियों का खुला प्रचार किया है
वेदों की भाषा, पुराणों की वाणी को नकारा है
ऋषियों की संगत को सरेआम ठुकरा दिया है
सभ्य संस्कृति का विसंगतियों से हास हुआ है
क्या आज़ भी अंधविश्वास नहीं है
क्या आज़ भी पाखंड नहीं है
सीधा सरल था जीवन जहां
आज़ वहां मौत सामने खड़ी है
लौट चलो अब सतयुग में
जीवन पावन था जहां
प्रकृति और रिश्तों को पूजा जाता था वहां
गर्व और स्वाभीमान था जहां, नर नारी दोनों का सम्मान था जहां
प्रकृति की गोद में चलो, प्रकृति की पूजा करो
वृक्षारोपण करो, प्रकृति का विनाश करना बंद करो
आनें वाली पीढ़ियों पर उपकार करते चलो
जीवन में सदाचार भरो और सत्य को स्वीकार करो
– सोनम पुनीत दुबे