प्रकृति के चंचल नयन
प्रकृति के चंचल नयन
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प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन।
संतप्त धरा के गर्भ से,
व्योम क्षितिज फैले नयन,
अनघ अभिराम सा है दिगदिगंत।
सृष्टि अनंत, दृष्टि अनंत ।।
प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन।
गिरते नहीं इसके पलक,
चाहे दिन हो या रात हो,
बोझिल नहीं इसके नयन,
चाहे धूप हो या छाँव हो।
सुरम्य मोहित चक्षु अत्यंत।
सृष्टि अनंत, दृष्टि अनंत ।।
प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन।
दिखता धरा पर जब इसे,
प्रेम-प्रवाह सरिता यहां,
मन बाग-बाग खिल कर जहां,
बिखेरता मोहक सुगंध ।
षडऋतुयों के स्वर्णिम चरण,
प्रेमजाल में फंसता दुष्यंत।
सृष्टि अनंत, दृष्टि अनंत ।।
प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन।
सावन सुरीली तरु लता,
झूमे पवन की गोद में,
मृग मोर मन करे नृत्य गान,
निर्जन मरू, कानन गहन।
बरसे घनन तरसे नयन,
विरह वेदना अश्रु प्रयंत ।
सृष्टि अनंत, दृष्टि अनंत ।।
प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन।
निरभ्र व्योम की ओट में,
झिलमिल सितारे देखकर ।
रवि किरण की अमृत सुधा,
मृगांक तृप्त करते गगन,
फिर चाँदनी की मद्धिम प्रभा,
प्राण वसुधा सहेजे तुरंत।
सृष्टि अनंत, दृष्टि अनंत ।।
प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन।
हिमखंडो का सीना तानकर,
दिखता इसे गिरिवर शिखर,
ऋषि मुनियों की तप की कथा,
ये देखता फिर अतीत में।
भारत भूमि की श्रेष्ठता में,
पुलकित नयन सुरभित वसंत।
सृष्टि अनंत, दृष्टि अनंत ।।
प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन।
वेदना से परिपूर्ण जब,
दिखती इसे तामस कथा,
अश्रु रूपी प्रलय धार तब,
द्विचक्षुओं से बहती सदा।
होती धरा पर तब यहां,
विपदा अगाध,विपदा अनंत।
सृष्टि अनंत, दृष्टि अनंत ।।
प्रकृति के चंचल नयन,
विश्रांतिहीन विस्तृत नयन ।
मौलिक एवं स्वरचित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०४ /०८/२०२१
मोबाइल न. – 8757227201